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________________ १५१] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १२] [ १५२ परदया व जिव्हा इन्द्रिय को वश करने के लिए करना और अपने आत्म स्वरूप में सावचेत रहना सचित्त त्याग प्रतिमा है। चित्त का चंचलपना मिट कर अपने आत्म स्वरूप की दृढ़ता होना ही सचित्त प्रतिमा है। (६) अनुराग भक्ति प्रतिमा - अपने आत्म स्वरूप के प्रति तीव्र अनुराग भक्ति होना,ब्रह्मस्वरूपकी स्थिरता के लिए तडफना,अनुराग भक्ति प्रतिमा है। नोट - श्री तारण स्वामी ने यह विशेष अनुभव प्रमाण प्रतिमा कही है जबकि अन्य श्रावकाचारों में रात्रि भुक्ति त्याग या दिवा मैथुन त्याग प्रतिमा कही है। (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा - अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण करना. लीन रहना, समस्त अब्रह्म भाव का त्याग होना, स्पर्शन इन्द्रिय का पूर्ण विजयी, ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी होता है। शीलव्रत की नव बाड़ हैं (१) स्त्रियों के सहवास में न रहना (२) स्त्रियों को प्रेम रूचि से न देखना (३) स्त्रियों से रीझकर मीठे-मीठे वचन न बोलना (४) पूर्व काल में भोगे हुये भोगों का चिन्तवन न करना (५) गरिष्ठ भोजन नहीं करना (६) शरीर श्रंगार - विलेपन नहीं करना (७) स्त्रियों की सेज पर नहीं सोना बैठना (८) काम कथा न करना (९) भरपेट भोजन न करना। ब्रह्मचर्य के दश दोषों को टालना त्याग करना - दश दोष- (१) शरीर अंगार करना (२) पुष्ट रस सेवन करना (३) गीत, नृत्य वादित्र देखना, सुनना (४) स्त्रियों की संगति करना (५) स्त्रियों में किसी प्रकार काम भोग सम्बन्धी संकल्प करना (६)स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखना (७) स्त्रियों के अंगों के देखने का संस्कार हृदय में रखना (८) पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण करना (९) आगामी काम भोगों की बांछा करना (१०) वीर्य पतन करना। इस ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वीर्यान्तराय कर्म का विशेष क्षयोपशम होकर आत्मशक्ति बढ़ती है। तप, उपवासादि सहज में होते हैं, संसारी आकुलता मिट जाती है, परिग्रह की तृष्णा घटती है. इन्द्रियाँ वश में होती हैं, जिससे वचन शक्ति स्फुरायमान हो जाती है, ध्यान करने में अडिग चित्त लगता है, कर्मों की विशेष निर्जरा होती है, जिससे मोक्ष शीघ्र प्राप्त होता है। (८) आरम्भ त्याग प्रतिमा - जिन क्रियाओं में षट्काय के जीवों की हिंसा हो, वह आरम्भ है। आरम्भ करने से परिणामों में विकलता होती है अत: साम्य भाव में शान्त आत्मस्थ रहने के लिये समस्त आरम्भ का त्याग, आरम्भ त्याग प्रतिमा है। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, शिल्पादि षट् आजीवी कर्मों और पंच सूना (चक्की, चूल्हा, उखली, बुहारी, पनघट) सम्बंधी क्रियाओं के त्याग करने से हिंसादि पापों का अभाव होता है। आरम्भ सम्बंधी विकल्पों के अभाव से आत्म कार्य में चित्तवृत्ति स्थिर होने लगती है। (९)परिग्रह त्याग प्रतिमा-राग-द्वेषादि आभ्यन्तर परिग्रहों की मंदता पूर्वक क्षेत्र, वास्तु आदि दश प्रकार के बाह्य परिग्रहों में से आवश्यक वस्त्र और पात्र के सिवाय शेष सब परिग्रहों को त्यागता है और संतोष वृत्ति धारण करता है, वह परिग्रह त्याग प्रतिमाधारी है। (१०) अनुमति त्याग प्रतिमा- परिग्रह से चिन्ता, शोक, भय, आदि होते हैं, मूर्छा भाव रहता है, इसका त्याग करने से गृहस्थाश्रम सम्बंधी सब भार उतर जाता है, जिससे निराकुलता निर्विकल्प रहना अनुमति त्याग प्रतिमा है। घर परिवार सम्बंधी आरम्भ की अनुमोदना करने से भी पाप का संचय और आकुलता की उत्पत्ति होती है, अतएव अनुमति त्याग होने से पंच पाप का नव कोटि से त्याग होकर पापाश्रव क्रियायें सर्वथा रूक जाती हैं। (११) उदिष्ट त्याग प्रतिमा - यह ग्यारहवीं प्रतिमा अन्तिम सीढ़ी है, इसके बाद, वीतराग, निर्ग्रन्थ, साधु पद होता है,यहाँ तक जिसके सारे संसारी उद्देश्य समाप्त हो गये, मुक्ति की उत्कृष्ट भावना हो गई, किसी प्रकार की कामना वासना नहीं रही, जो शरीर से भी निर्ममत्व हो गया. जिसके उत्कष्ट भाव रत्नत्रय मयी निज शुद्धात्मा के ध्यान में लीन रहने के हो गये, जिसे अब किसी से कोई प्रयोजन रहा ही नहीं, जिसके भोजन का राग समाप्त हो गया, जो मन की शुद्धि, वचन की शुद्धि रखने वाला, काय की स्थिरता के लिए भिक्षा द्वारा अपने अनुकूल शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी है।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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