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________________ १४७] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १२] [ १४८ पात्रता होती है। (२) व्रत प्रतिमा- जो अखंड सम्यग्दर्शन और अष्ट मूल गुणों का धारक मिथ्या, माया, निदान तीन शल्यों रहित, राग द्वेष के अभाव और साम्यभाव की प्राप्ति के लिये अतिचार रहित उत्तर गुणों को धारण करे, वह व्रत प्रतिमाधारी है। बारह व्रत निम्न प्रकार हैं - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, इनका स्वरूप संक्षेप में निम्न प्रकार है, विशेष आगम ग्रंथों से देखें। पापों का एक देश त्याग अणुव्रत है, सर्व देश त्याग महावत है। (१) अहिंसाणुव्रत - "प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरोपर्ण हिंसा" (तत्वार्थ सूत्र) प्रमत्त योग अर्थात् कषायों के वश होकर प्राणों का नाश करना सो हिंसा है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय रूप परिणाम होना सो भाव हिंसा है और इन्द्रिय, बल, श्वासोच्छ्वास, आयु प्राणों का विध्वंस करना सो द्रव्य हिंसा है। जिस प्रकार जीव को स्वयं अपनी भाव हिंसा के फल से चतुर्गति में भ्रमण करते हुये, नाना प्रकार दु:ख भोगने पड़ते हैं और द्रव्य हिंसा होने से अति कष्ट सहन करना पड़ते हैं, उसी प्रकार दूसरों के द्रव्य और भाव प्राणों की हिंसा करने से भी तीव्र कषाय और तीव्र बैर उत्पन्न होता है, जिससे जन्म जन्मान्तरों में महान दु:ख की प्राप्ति होती है। अहिंसा व्रत की पाँच भावनायें - वचन गुप्ति,मनो गुप्ति, ईर्या समिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन (सूर्य के प्रकाश में देख कर खाना पीना) यह पांच अहिंसाव्रत की भावनायें हैं। हिंसा के चार भेद हैं - संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी, विरोधी। व्रती श्रावक संकल्पी हिंसा का पूर्ण त्यागी होता है। अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार - बध, बंध, छेदन, अतिभारारोपण, अन्नपान निरोध। (२) सत्याणुव्रत - कषाय भाव पूर्वक अयथार्थ बोलना, असत्य कहलाता है। दुष्टता रूप चुगली, हास्य, मिथ्या, कठोर, शास्त्र विरुद्ध व्यर्थ विरोध बढ़ाने वाले पाप रूप अप्रिय वचन कहना, सब असत्य के अन्तर्गत आते हैं, इनका त्याग करना सत्याणुव्रत है। सत्य व्रत की पाँच भावनायें - क्रोध, लोभ, भय, हास्य का त्याग और अनुवीचि भाषण (शास्त्र आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलना) यह पांच सत्यव्रत की भावनायें हैं। सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार - मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेख क्रिया, न्यासापहार, साकार मंत्र भेद। इन दोषों को बचाना चाहिए। (३) अचौर्याणुव्रत - कषाय भाव युक्त होकर दूसरे की वस्तु उसके दिये बिना या बिना आज्ञा के ले लेना चोरी है "जल मृतिका बिन और नाहिं कछु गह अवत्ता।" इस वाक्य के अनुसार अचौर्यव्रत पालन करना चाहिए। अचौर्याणुव्रत की पाँच भावना - शून्यागार अर्थात् पर्वत, गुफा, तट आदि पर निवास, विमोचितावास (त्यक्त स्थानों में रहना), परोपरोधाकरण (अपने स्थान में किसी को ठहरने से न रोकना), भैक्ष्य शुद्धि (शास्त्रानुसार भिक्षा की शुद्धि रखना), सधर्माविसंवाद (साधर्मी भाइयों से विसम्वाद नहीं करना) यह अचौर्य व्रत की भावनायें हैं। अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार - चौर प्रयोग, चौरार्थादान, विरूद्ध राज्यातिक्रम, हीनाधिक मानोन्मान, प्रतिरूपक व्यवहार । (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत - स्व स्त्री के सिवाय और सब पर स्त्रियों का त्याग करना ही गृहस्थ का ब्रह्मचर्याणुव्रत है (वेश्या, दासी, पर स्त्री, कुमारी आदि) सेवन का सर्वथा त्याग, तथा स्व स्त्री से भी हटकर ब्रह्मचर्य पालना, ब्रह्मचर्याणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रत की पाँच भावना - स्त्री राग की कथादि सुनने का त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पहले भोगे हुये विषयों के स्मरण का त्याग, काम वर्धक गरिष्ठ भोजन का त्याग, अपने शरीर संस्कारों (श्रंगार) का त्याग, यह ब्रह्मचर्याणुव्रत की पाँच भावनायें हैं। ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचार-पर विवाहकरण, इत्वरिका परिग्रहीता गमन, इत्वरिका अपरिग्रहीता गमन, अनंग क्रीड़ा, कामतीव्राभिनिवेश । (५) परिग्रह प्रमाण अणुव्रत-आत्मा के सिवाय जितने भी राग द्वेषादि भाव कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, औदारिकादि नो कर्म तथा शरीर सम्बन्धी, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, गृह, क्षेत्र, वास्तु, वर्तन आदि चेतन, अचेतन पदार्थ हैं
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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