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________________ १४१] [मालारोहण जी गाथा क्रं.११] [ १४२ ८. साधु समाधि भावना- कब साधु बनकर निर्विकल्प ध्यान समाधि लगाऊँ। ९.पैयावृत्य करण भावना- सभी धर्मात्मा, महापुरूषों की सेवा शुश्रूषा करना। १०. अहंत भक्ति भावना- अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा के गुणों का स्मरण करना, वैसे ही गुण अपने में प्रगट करना। ११. आचार्य भक्ति भावना- वीतराग निग्रंथ सद्गुरू आचार्य के गुणों का स्मरण और भक्ति करना। १२. बहुश्रुत भक्ति भावना-बहुश्रुत के ज्ञाता उपाध्याय के गुणों का स्मरण भक्ति करना। १३. प्रवचन भक्ति भावना - जिनवाणी व रत्नत्रय मयी धर्म की महिमा बहुमान करना। १४. आवश्यकापरिहाणि भावना- नित्य आवश्यक धर्म क्रियाओं को करते रहना। १५. मार्ग प्रभावना भावना- वीतराग जिन धर्म, मुक्ति मार्ग की प्रभावना करना। १६. प्रवचन वत्सलत्व भावना- समस्त धर्म प्रेमी जीवों से प्रेम वात्सल्य भाव होना। यह सोलह कारण भावनाओं का निरंतर स्मरण, ध्यान, चिन्तन, मनन, चलते रहना, इससे परिणामों में विशुद्धि आती है। धर्म की वृद्धि आगे बढ़ने का योग बनता है। इससे चार अनुयोग और रत्नत्रय के गुण प्रगट होते हैं। चार अनुयोग-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग सम्यग्ज्ञान का मुख्य कारण श्रुतज्ञान है, जिसके यह चार भेद हैं, जिन्हें अनुयोग या वेद भी कहते हैं, इससे धर्म की दृढता होती है। १. प्रथमानयोग - इसमें त्रेसठ शलाका महापुरूषों २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण,९प्रतिनारायण,९बलभद्र का जीवन चरित्र बताया है। जिसमें जीव के संसार और कर्म बंध की दशा का वर्णन किया है। मिथ्यात्व के सेवन से क्या दुर्दशा होती है और सम्यग्दर्शन होने से कैसा सुख, सद्गति और मुक्ति की प्राप्ति होती है, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण बताया है। २. करणानुयोग- इसमें तीन लोक की रचना, कहां-कहां कौनकौन, जीव पैदा होते हैं, उनकी क्या व्यवस्था है, जीवों के परिणाम कितने प्रकार के होते हैं, उनसे कैसे-कैसे कर्मों का कैसा बंध होता है? उदय स्थिति. अनुभाग, कैसा भोगना पड़ता है, गुणस्थान, मार्गणा, आदि का स्वरूप बताया है। ३.चरणानुयोग- इसमें संसार के दुःखों से छूटने, पाप विषय कषायों से बचने के लिए व्रत, नियम, संयम, तप के पालन करने की विधि, श्रावक और साधु की चर्या का वर्णन किया है। ४. द्रव्यानुयोग- इसमें सत्ताईस तत्वों का स्वरूप बताते हुए आत्मा के शुद्ध स्वरूप की महिमा बताई है कि किस प्रकार यह आत्मा अपने स्वरूप की साधना करके परमात्मा बनती है। शुद्ध निश्चय से आत्मा त्रिकाल शुद्ध सिद्ध के समान परमात्म स्वरूप है। चारों अनुयोगों के ज्ञान से रत्नत्रय की निर्मलता शुद्धि होते हुए पूर्णता होती है। रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । १. सम्यग्दर्शन- "पर द्रव्यों से भिन्न आपमें, रूचि सम्यक्त भला है"भेदज्ञान पूर्वक शरीर, मन, वाणी, कर्म से भिन्न, मैं एक अखंड, अविनाशी. चेतन तत्व भगवान आत्मा हूं ऐसा अनुभूति युक्त श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। २. सम्यग्ज्ञान-"आप रूप को जान पनों सो सम्यग्ज्ञान कला है।" स्व-पर के यथार्थ निर्णयपूर्वक वस्तु स्वरूप को जानना तथा अपने ध्रुव तत्व ममल स्वभाव का नि:संशय ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है। ३. सम्यग्चारित्र- "आप रूप में लीन रहे थिर सम्यग्चारित सोई "| सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञानपूर्वक अपने स्वभाव में लीन होना तथा वीतराग, निग्रंथ दशा होना ही सम्यग्चारित्र है। इन तीनों की एकता मोक्षमार्ग है और पूर्णता मोक्ष है। सम्यग्दर्शन से
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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