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________________ १११] [मालारोहण जी गाथा क्रं.८] [ ११२ यह पर को बताने या पर को देखने की बात ही नहीं है. न उसमें कोई लाभ है यह तो स्वयं की स्वयं में ही समझने की बात है क्योंकि इसका यथार्थ निर्णय हुये बगैर अपना आगे का मार्ग बनेगा ही नहीं। अहंकार और स्वच्छन्दीपना तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को ही होता है, सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को यह नहीं होते। जिसके सच्ची श्रद्धा प्रगट होती है, उसका सम्पूर्ण अन्तरंग ही बदल जाता है, हृदय पलट जाता है, अन्तर में उलट-पुलट हो जाती है। अनादि अज्ञान, अंधकार टलता है। अन्तर की ज्योति जाग उठती है उसकी दशा की दिशा बदल जाती है जिसका अन्तर बदलता है उसे किसी से पूछने नहीं जाना पड़ता, उसका अन्तर बेधड़क पुकारता हुआ साक्षी देता है कि अब हम प्रभु के मार्ग में आ गये हैं, सिद्ध का संदेशा आ चुका है, अब हम अल्पकाल में सिद्ध होकर संसार से छुटकारा पायेंगे, अब कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है। मैंज्ञान स्वभावी सिद्ध के समान शुद्ध भगवान आत्मा हूँ, मेरे स्वभाव में संसार नहीं है अर्थात् किसी पर वस्तु, पर जीव से मेरा कोई सम्बंध नहीं है, ऐसे भानपूर्वक धर्मी जीव संसार के स्वरूप का विचार करते हैं उन्हें ही अपनी शक्ति को प्रगट करने का पुरूषार्थ होता है। जिसे संसार रहित स्वभाव की दृष्टि प्रगट नहीं हुई उसे संसार के स्वरूप का यथार्थ विचार नहीं होता। ज्ञानी को अन्तर में स्वसंवेदन ज्ञान प्रस्फुटित हुआ, वहाँ स्वयं को उसका वेदन आया,पीछे कोई अन्य उसे जाने या न जाने उसकी कोई अपेक्षा नहीं है। जैसे - कोई सुगंधित फूल खिलता है उसकी सुगंध कोई अन्य लेता है या नहीं, उसकी अपेक्षा फूल को नहीं है। वह तो स्वयं-स्वयं में स्वयं से खिला है वैसे ही धर्मात्मा को स्वयं का आनन्दमय स्वसंवेदन प्रगट हुआ, वह कोई अन्य के प्रदर्शन हेतु नहीं है। सम्यकदृष्टि धर्मात्मा की दृष्टि अन्तर के ज्ञानानन्द स्वभाव ऊपर है, क्षणिक रागादि ऊपर नहीं है, उसकी दृष्टि में रागादि का अभाव होने से उसकी दृष्टि अपेक्षा संसार कहाँ रहा? राग रहित ज्ञानानन्द स्वभाव ऊपर दृष्टि होने से वह मुक्त ही है, उसकी दृष्टि में मुक्ति ही है। रागादि से भिन्न चिदानन्द स्वभाव का भान और अनुभव हुआ वहाँ धर्मी को उसका नि:संदेह ज्ञान होता है कि मुझे आत्मा का कोई अपूर्व आनन्द का वेदन हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ, आत्मा में से मिथ्यात्व का नाश हो गया । मैं समकिती हूँ या मिथ्यादृष्टि, ऐसा संदेह जिसे है वह नियम से मिथ्यादृष्टि है। अन्तर गर्भित अध्यात्म रूप क्रिया तो अन्तर दृष्टि से ही ग्राह्य है परन्तु अज्ञानी को ऐसी दृष्टि प्रगट नहीं होती अत: अध्यात्म की अन्तर क्रिया तो उसे दृष्टिगोचर नहीं होती और इसी कारण से अज्ञानी जीव मोक्षमार्ग को नहीं साध सकता अत: इस बात का निर्णय और अन्तरंग से स्वीकारता होने पर ही मुक्ति का मार्ग सधता है। जब तक सम्यग्दर्शन, निज शद्वात्मानुभूति के सम्बंध में संशय, भ्रम, शंका रहती है वहाँ अपने आत्म स्वरूप और उसके गुणों का प्रगटपना होता ही नहीं है इसलिए सबसे पहले इस बात को अन्तर से स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है कि मैं शुद्धात्मा हूँ यह शरीरादि मैं नहीं हैं. ऐसा अनुभूतियुत श्रद्धान ही मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। प्रश्न - जब शरीर मन-अन्त:करण आदि से आत्मा परे है आत्मानुभूति भिन्न है फिर हदय से स्वीकार करने का क्या प्रयोजन है? समाधान-आत्मा शरीरादि अंत: करण से भिन्न है। इनका अनुभूति से कोई सम्बंध नहीं है परन्तु संयोग होने के कारण उसका प्रगटपना इन्हीं के माध्यम से होता है। जैसे शरीर की हलन-चलन, क्रिया, मन में चलने वाले भाव इन सबका जानने वाला ज्ञायक आत्मा है और इन सबका होना चेतन की सत्ता बताता है। जीव की स्थिति और पात्रता का बोध इन्हीं के माध्यम से होता है। आत्मा तो अरस अरूपी अस्पर्शी अव्यक्त है इन्हीं के द्वारा उसकी सत्ता और पात्रता का पता लगता है। अनादि से जीव मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी होने के कारण इन शरीरादिक कर्मों के अनुसार पराधीन परिणमन कर रहा है। जब जीव जाग जाता है, सम्यग्दर्शन निज शद्धात्मानुभूति होती है और वह अंत:करण हृदय को पता न चले, ऐसा हो ही नहीं सकता। जैसे-अपने घर में
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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