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________________ १०७] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ८ ] [ १०८ करो क्योंकि यदि प्रारम्भ में ही परिपूर्ण शुद्धता का लक्ष्य, श्रद्धान न होवे तो मोक्षमार्ग की शुरूआत ही नहीं होती, मुमुक्षुता सम्यग्दृष्टी को ही होती है। जिज्ञासा सभी संसारी जीवों को हो सकती है इसलिए इस बात का पक्का निर्णय किये बगैर चाहे जैसे साधन से शुरूआत करने वाले का ध्येय अन्यथा होने से संयोग प्राप्ति का लक्ष्य हो जाता है अथवा प्रशस्त राग का लक्ष्य हो जाता है अथवा अल्प विकसित दशा का लक्ष्य रहता है। जो सब दर्शन मोह के बढ़ने के ही कारण होते हैं। लगन एवं लक्ष्य के अभाव में प्रमाद रहा करता है, जो आत्म-गुणों को दबा डालता है। आत्म भावना, लगन, ध्येय, यदि स्वलक्षी होता है। तब स्वयं के दोष अपक्षपात रूप से दिखते हैं और उन्हें मिटाने का ध्यान रहा करता है। जो जीव शुभ राग का समर्थक है। जिसे शभ राग पुण्यादि की महत्ता है। जिसे शुभ का आग्रह बन गया है अथवा जो शुभ में ही संतुष्ट हो गया है । वह मिथ्यात्व का पोषण करने वाला मिथ्यादष्टि है परन्तु मोक्षमार्गी जीव तो पूर्ण शुद्धता के लक्ष्य से ही पुरूषार्थ करता है। सम्यग्दृष्टि जीव (द्रव्य दृष्टि से) अपनी आत्मा को परिपूर्ण व शुद्ध मानता है तथा उसे ही सर्वस्व रूप से उपादेय जानता है, सम्यग्दृष्टि को अपने अनन्त चतुष्टय मण्डित शुद्धात्मा का जो अतीन्द्रिय सहज प्रत्यक्ष-स्वानुभव वर्तता है, वही भाव श्रुतज्ञान है उसने इसी अनुभव ज्ञान से पूर्ण ज्ञान केवलज्ञान स्वरूप को पहिचाना है। इस प्रकार जब अपना हृदय (अंत:करण) शुद्ध सम्यक्त्व से परिपूर्ण हो गया है तो अब अपने सत्स्वरूप के गुणों की माला गूंथो, उन गुणों को अपने में प्रगट करो संजोओ। देखो, तुम स्वयं देवाधिदेव परमात्मा हो, समस्त पाप परिग्रह, रागादि मलों से रहित अन्तरात्मा गुरू हो, अपना धर्म निज स्वभाव तो अहिंसामयी अर्थात् समस्त राग-द्वेषादि विकारों से रहित उत्तम क्षमादि लक्षणों वाला है अब ऐसे गुणों की माला गूंथो अर्थात् अपने स्वरूप में रहकर इन गुणों को प्रगट करो क्योंकि स्वभाव साधना से ही कर्म क्षय होते हैं, तुम्हें मुक्ति श्री का वरण करना, मुक्ति सुख पाना है। पूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा होना है तो अपने सम्यक्त्व की शुद्धि करो कि हाँ मुझे भेदज्ञान पूर्वक शुद्धात्मानुभूति हो गई । रागादि से भिन्न चिदानन्द-स्वभाव का भान और अनुभवन हुआ वहाँ धर्मी को उसका नि:संदेह ज्ञान होता है कि मुझे आत्मा का कोई अपूर्व आनन्द का वेदन हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ, आत्मा में से मिथ्यात्व का नाश हो गया। शुद्ध चैतन्य ध्रुव स्वभाव के ध्यान से जिसे सम्यग्ज्ञान प्रगट हआ है, ऐसे जीव को ऐसी पर्याय रूप योग्यतायें होती हैं व उनका ज्ञान भी होता है। निर्विकारी आनन्द सहित जो ज्ञान होता है उसे सम्यग्दष्टि का क्षयोपशम, ज्ञान कहते हैं। सम्यग्दर्शन एवं आत्मानुभव की स्थिति रूप पर्याय में संपूर्ण आत्मा प्रगट नहीं होता परन्तु समस्त शक्तियां उस पर्याय में एक देश प्रगट होती हैं, सम्यग्दर्शन में पूर्ण परमात्मा प्रतीति में आ जाता है। शुद्धात्मा का अनुभव होने के पश्चात् पाप, विषय, कषाय से विरक्ति, अरूचि रूप व्रत, तप, संयम नियम के भाव होने लगते हैं और धर्म के आश्रय रूप अहिंसा प्रगट होती है। अहिंसा - हिंसा के सर्वथा अभाव रूप अहिंसा होती है। यही धर्म शुद्ध स्वभाव रूप है। हिंसा दो तरह की होती है- स्वहिंसा और परहिंसा। स्वहिंसा - अपने में मोह, राग, द्वेषादि विकारी भाव होना,खेद खिन्न, दुःखी, चिन्तित, भयभीत, संकल्प, विकल्पों में रहना आदि स्वहिंसा है। परहिंसा - किसी भी प्राणी को मारना, दुःख देना, उसके प्राणों का घात करना, दिल दुखाना आदि परहिंसा है। अपना स्वभाव धर्म अहिंसामयी है, तो मोह, राग-द्वेष रहित अपने स्वभाव में रहना ही धर्म है और यही अहिंसा, अहिंसा परमोधर्म: है. इसी बात को पुरूषार्थ सिद्धि उपाय में अमृतचन्द्राचार्य जी कहते हैं कि रागादि भावों का प्रगट न होना यह अहिंसा है और उन्हीं रागादि भावों की उत्पत्ति होने से हिंसा होती है, ऐसा जैन सिद्धान्त का सार है। (पुरूषार्थ सिद्धि उपाय गाथा-४४) इस प्रकार अहिंसा कहो या वीतरागता कहो जितनी इसकी वृद्धि होती
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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