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________________ [मालारोहण जी गाथा क्रं. ७ ] [ १०० अधिक-अधिक होती जाती है। आत्मानुभव-निर्विकल्प, दशा को ही धर्म कहते हैं। इसी की बढ़ती हुई शुद्ध दशा जिसमें कषाय कर्मादि क्षय होते जाते हैं, उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं। इसी से चार घातिया कर्म क्षय होते हैं। तब आत्मा अरिहंत परमात्मा हो जाता है। शेष चार अघातिया कर्मो के दूर होने पर वही सिद्ध परमात्मा हो जाता है। भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों ही काल में बहिरात्मा से अन्तरात्मा व परमात्मा सिद्ध होने का एक ही मार्ग है। अपनी आत्मा का जो यथार्थ निर्णय करेगा, वही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र की एकता रूप मोक्षमार्ग का साधन करेगा, यह मोक्षमार्ग वर्तमान जीवन में भी साधक को आनंददाता है व भविष्य में अनन्त सुख सिद्ध पद का कारण है। जिज्ञासु मुमुक्षुजीव को उचित है कि वह व्यवहार धर्म के बाहरी अवलम्बन से निश्चय धर्म का आत्मानुभव का अभ्यास करे यही बहिरात्मा से अन्तरात्मा व परमात्मा होने की विधि है। देव जिनेन्द्र साधु गुल करूणा धर्म राग व्योहार मना । निहर्च देव धरम गुरू आतम धानत गहिमन वच तना ॥ इसी बात को समयसार कलश में कहा है- (कलश १९१) जो कोई अशुद्धता के करने वाले सर्व ही पर द्रव्य का राग स्वयं त्याग कर व सर्व पर भाव में रति रूप अपराध से मुक्त होकर अपने ही आत्मीक शुद्ध द्रव्य में रति-प्रीति आसक्ति व एकाग्रता करता है, वह अपने उछलते हुए आत्मा के प्रकाश में रहकर कर्म बंध का क्षय करके चैतन्य रूपी अमृत से पूर्ण व शुद्ध होकर मोक्ष सिद्ध पद को पाता है। अब तो जिनेन्द्र परमात्मा, भगवान महावीर की वाणी को प्रमाण कर अपने शुद्ध स्वरूप को देखो। प्रश्न- सामने तो यह रागादि का उदय और पुण्य-पाप रूप परिणमन दिखाई दे रहा है इसे छोड़कर रत्नत्रय मयी अनंत चतुष्टय का धारी आत्मा शुद्धात्मा को कहां से कैसे देखें? समाधान-जो दिखाई दे रहा है बस यह देखना ही बंद कर दो तो जो देखने जानने वाला है वह स्वयं ही शुद्ध है, ध्रुव है, शुद्धात्मा है क्योंकि जो दिखाई दे रहा है वह स्वयं तो नहीं है, जो दिखाई दे रहा है वह पर ही है। तभी तो दिखाई दे रहा है जो क्षणभंगुर नाशवान है। अपना स्वभाव होवे तो वह चलता-फिरता, आता-जाता कभी कुछ कभी कैसा ही क्यों दिखाई देवे? स्वभाव तो एक रूप एक सा त्रिकाल होता है, जैसे-मिर्च में चरपराहट, अग्नि में उष्णता है तो चरपराहटपना या उष्णता अलग होवे या अन्य रूप हो जावे तथा मिर्च या अग्नि अलग हो जाये ऐसा कभी हो ही नहीं सकता, होता ही नहीं है वह तो तादात्म्य ही होता है। इसी प्रकार अपना स्वभाव तो ध्रुव शुद्ध चैतन्य मयी ज्ञाता दृष्टा ज्ञानानंद मयी ही है। जो दिखाई दे रहा है वह सब क्षणभंगुर-नाशवान मूर्तिक पुद्गल परमाणुओं का परिणमन है, अब इन्हें जो अपना स्वरूप या मेरे हैं, मैं कर्ता हूं ऐसा मान रहा है, वह अज्ञानी बहिरात्मा है उसने अभी अपने स्वरूप को देखा जाना ही नहीं है। रागावयो पुन्य पापाय दूर,ममात्मा सभा धुव सब दिस्ट। यही तो जोर लगाना है यही तो सत पुरूषार्थ है कि इनके बीच रहते, इनके होते इनसे भिन्न अपने शद्धात्म स्वरूप को देखो। प्रश्न-आप यहां कह रहे हैं कि मेरा आत्मा स्वभाव से घुव हैशुद्ध है ऐसा देखो तो यह भी अलग या पर है वरना देखने का प्रयोजन क्या समाधान-ऐसा देखने का प्रयोजन, ऐसा अनुभव करो स्वीकार करो, ऐसा श्रद्धान करो कि मैं तो ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी शद्धात्मा ही हैं यहां अलग या पर कुछ है ही नहीं,मात्र कथन, व्यवहार अपेक्षा भेद करके कहने में आता है क्योंकि आत्मा तो एक अखंड, अभेद, अविनाशी चेतन ही है पर अनादि से जो चेतन आत्मा का देखने जानने रूप उपयोग, यह पर को ही देख जान रहा है और यही मैं हूं यह मेरे हैं ऐसा मान रहा है, यही अज्ञान मिथ्यात्व है और इसी का नाम बहिरात्मपना है। अब यह जो देखने जानने रूप उपयोग चेतन शक्ति अपने स्वसम्मुख हो जाये, अपने शुद्धात्म तत्व को ही देखने जानने लगे यही अनुभूति स्वीकारता श्रद्धान कहने में आता है। प्रश्न-जब मैं स्वयं सिद्ध स्वरूपी धुव तत्व शुद्धात्मा हूं ज्ञान मात्र
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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