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________________ [मालारोहण जी गाथा क्रं.७] [ ९० स्वरूप में गुप्त हो गये होते हैं। प्रचुर स्वसंवेदन ही मुनि का भावलिंग है और देह की नग्न दशा, वस्त्र पात्र रहित निग्रंथदशा मुनि का द्रव्यलिंग है। ऐसा अपना भाव भी जगे और इस मुक्ति मार्ग पर चलें इसी में इस मनुष्य भव की सार्थकता है । पर पहले मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा रत्नत्रय मयी अनन्त चतुष्टय का धारी हूँ ऐसा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सहित सम्यग्चारित्र धारण करना ही श्रेयस्कर है। प्रश्न - मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा रत्नत्रय मयी अनन्त चतुष्टय का धारी हूँ यह बात कैसे मान लें उसके लिये प्रमाण क्या है? इसके प्रमाण में आगे सद्गुरू सातवीं गाथा कहते हैं गाथा -७ श्री केवलं न्यान विलोकि तत्वं, सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं । संमिक्त न्यानं चरनंत सुष्यं, तत्वार्थ सार्धं त्वं दर्सनेत्वं ॥ शब्दार्थ-(श्री केवलंन्यान) श्री केवली परमात्मा ने ज्ञान में (विलोकि तत्वं) इस तत्व को देखा है (सुद्धं प्रकासं) शुद्ध प्रकाश मयी मात्र ज्योति स्वरूप (सुद्धात्म तत्वं) सुद्धात्म तत्व है (संमिक्त न्यानं) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, (चर) सम्यग्चारित्र मयी (नंत सुष्यं) अनन्त सुख स्वभावी है। (तत्वार्थ साध) इस प्रयोजन भूत तत्व की श्रद्धा करो (त्वं दर्शनेत्वं) और तुम भी हमेशा देखो। विशेषार्थ- श्री केवलज्ञानी परमात्मा (महावीर स्वामी) ने अपने केवल ज्ञान में प्रत्यक्ष आत्म तत्व को देखा है कि शद्धात्म तत्व शद्ध प्रकाश मयी अर्थात् ज्ञान मात्र चैतन्य ज्योति स्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र मयी, अनन्त चतुष्टय का धारी है। हे भव्यात्मन ! ऐसे इष्ट और प्रयोजनीय निज शुद्धात्मा का श्रद्धान कर तम भी हमेशा उसे देखो। मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा रत्नत्रयमयी अनन्त चतुष्टय का धारी हूँ यह बात कैसे मान लें इसके लिए प्रमाण क्या है? इसके लिये सद्गुरू तारण स्वामी कहते हैं कि यह बात मैं ही नहीं कह रहा, यह तो केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा भगवान महावीर स्वामी ने अपने ज्ञान में प्रत्यक्ष देखा है। अनुभव प्रमाण कहा है कि आत्मा तो शुद्ध प्रकाश शुद्धात्मतत्व ही है। यह अपने स्वभाव रत्नत्रयमयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) अनन्त सुख स्वभावी, अनन्त चतुष्टय धारी है। इसमें यह रागादि कर्म मल हैं ही नहीं, ऐसे प्रयोजन भूत शुद्धात्म तत्व का श्रद्धान करो और तुम भी देखो अर्थात् ऐसी अनुभूति करो। द्रव्य दृष्टि या शद्ध निश्चय नय से सर्व ही आत्मायें एक समान शुद्ध-बुद्ध परमात्मा एवं ज्ञानानन्द मय हैं कोई भेद नहीं है । केवलज्ञानी ने जैसा अपना शुद्धात्म तत्व प्रत्यक्ष देखा है और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र मयी, अपने अनन्त सुख स्वरूप अनन्त चतुष्टय को प्रगट कर लिया है, वैसे ही प्रत्येक जीव द्रव्य का स्वभाव सत् है। सदा रहने वाला है। "सत् द्रव्य लक्षण।"उत्पाद व्यय धौव्य युक्तं सत्।"(तत्वार्थ सूत्र) हर एक द्रव्य अपने सर्व सामान्य तथा विशेष गुणों को अपने भीतर सदा बनाये रहता है। उनमें एक भी गुण कम या अधिक नहीं होता इसीलिये द्रव्य धौव्य होता है। हर एक गुण परिणमन शील है, कूटस्थ नहीं है । यदि कूटस्थ हो तो कार्य-क्रिया न हो सके। गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। एक गुण में एक-एक समय होने वाली अनन्त पर्यायें होती हैं। पर्यायें सब नाशवान होती हैं। जब एक पर्याय होती है तब पूर्व पर्याय का नाश हो जाता है। पर्यायों की अपेक्षा हर समय द्रव्य उत्पाद, व्यय स्वरूप है। हर एक जीव में अपने सर्व गुणों की शुद्ध या अशुद्ध परिणमन की शक्ति है। प्रत्येक जीव में स्वभाव विभाव रूप शक्ति है। जिसके कारण यह तीन प्रकार का कहा जाता है- (१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा। (१) बहिरात्मा- जिस जीव ने अपने चेतना स्वरूप को नहीं जाना है। यह अचेतन शरीरादि ही मैं हूँ ऐसा मानता है, वह बहिरात्मा है। (२) अन्तरात्मा-जिसने भेद ज्ञान के द्वारा शरीरादि से भिन्न अपने सत्स्वरूप को जान लिया वह अन्तरात्मा है। (३) परमात्मा - जो अपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव में स्थित-पूर्ण शुद्ध
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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