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________________ ८३ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ६ ] ज्ञायक स्वभाव का जहाँ अन्तर में भान हुआ-जानने वाला जाग उठा कि मैं तो एक ज्ञायक स्वरूप हूँ, ध्रुव हूँ, शुद्ध हूँ ऐसा जब अनुभव में आया तब ज्ञान धारा को कोई रोक नहीं सकता। सम्यग्दृष्टि को तो बाहर के विकल्पों में आना रूचता ही नहीं। ज्ञानी की ऐसी भावना होती है कि शुद्ध स्वभाव में ही लीन रहँ मुझे बाहर आना ही न पड़े। प्रश्न- यह कैसे समझ में आवे कि जीव को सम्यग्दर्शन हो गया, यह ज्ञानी है और मुक्ति के सुख में मगन है? समाधान- भाई ! यह पर की अपेक्षा समझने की बात नहीं है यह तो निज की अपेक्षा की बात है, कौन कैसा है, उसकी वह जाने; जो जैसा है उसका फल वह भोगेगा क्योंकि धर्म-कर्म में कोई किसी का साथी नहीं है, जो जैसा करेगा, वह उसका फल भोगेगा। हमें तो अपने को देखना चाहिए. सद्गुरू तो अपनी बात बता रहे हैं जैसे-इतने तीर्थकर परमात्मा हो गये, उनको जान लेने से, अपने को क्या लाभ है। जब तक स्वयं वैसे नहीं होते, तब तक अपने को क्या मिलता है? अरे ! सम्यग्दृष्टि जीव को छह खंड के राज्य में संलग्न होने पर भी ज्ञान में तनिक भी ऐसा भाव नहीं आता कि ये मेरे हैं। छियानवे हजार अप्सरा जैसी रानियों के वृन्द में रहने पर भी उनमें तनिक भी सुखबुद्धि नहीं होती तथा कोई नरक की भीषण वेदना में पड़ा हो तो भी अतीन्द्रिय आनन्द के वेदन की अधिकता नहीं छूटती है। इस सम्यग्दर्शन का क्या माहात्म है। संसारी जीव को इस मर्म को बाह्य दृष्टि से समझना बहुत कठिन है। जैसे खीर के स्वाद के आगे लाल ज्वार की रोटी अच्छी नहीं लगती वैसे ही जिन्होंने प्रभु आनन्द स्वरूप है ऐसा स्वाद लिया है उन्हें जगत की किसी भी वस्तु में रूचि नहीं होती, रस नहीं आता, एकाग्रता नहीं होती, निज स्वभाव के सिवाय जितने विकल्प और बाह्य ज्ञेय हैं उन सभी का रस टूट जाता है। चौथे गुणस्थान में विषय कषाय के परिणाम होने पर भी सम्यग्दर्शन को बाधित नहीं करते और सम्यग्दर्शन के अभाव में अनन्तानुबंधी आदि कषाय की मन्दता होने पर भी मिथ्यात्व का पाप बंध करता है। सम्यग्दृष्टि ने शुद्ध स्वरूप का अनुभव किया उसके पश्चात् उसे ऐसी भावना रहती है कि वह एक क्षण के लिए भी छोड़ने योग्य नहीं है, जो विकल्प उठते हैं उन्हें जानता है पर वह उन विकल्पों का कर्ता नहीं है। आत्म अनुभव के बिना सब कुछ शून्य है। लाख कषाय की मन्दता करो या लाख शास्त्र पढ़ो किन्तु अनुभव बिना सब व्यर्थ है। यदि कुछ भी न सीखा हो, उसे बात करना भले ही न आये तो भी वह केवलज्ञान प्राप्त कर लेगा। (जैसे - शिवभूति मुनि) सद्गुरू कहते हैं कि ज्ञायक धुव शुद्ध तत्व उसका ज्ञान कर, उसकी प्रतीति कर, उसमें रमण कर यही मुक्ति सुख मुक्ति का मार्ग है, पर की ओर से दृष्टि हटाकर निज की ओर देखें इसी में अपना भला है। प्रश्न-जब सदगुलकी वाणी,शखात्मा की चर्चा सनते तब अपूर्व आनन्द आता है, लगता है ऐसी दशा में डूबे रहें,पर यह स्थिति रहती क्यों नहीं है? समाधान-शुद्धात्मा की चर्चा सुनने में आनन्द आता है, यह अच्छी होनहार का प्रतीक है। ऐसी दशा में रहते क्यों नहीं हैं ? यह पात्रता और पुरुषार्थ की बात है। जिस भूमिका में बैठे हैं उसी अनुसार सब होगा यही धर्म का मर्म है और निश्चय व्यवहार की संधि है। धर्म की चर्चा, जिनवाणी सुनना अच्छा लगता है यह बड़े सौभाग्य की बात है। आत्मार्थी को सम्यग्दर्शन के पूर्व स्वभाव समझने का इतना तीव्र रस होता है कि श्री गुरू की वाणी सुनते ही उसका ग्रहण होकर आत्मा में उतर जाता है। आत्मा में परिणमित हो जाता है। जिस प्रकार कोरे घड़े पर पानी की बूंद गिरते ही वह उसे चूस लेता है अथवा गरम लोहे पर पानी की बूंद गिरते ही वह उसे सोख लेता है। उसी प्रकार संसार दुःख से संतप्त आत्मार्थी जीव को श्री गुरू का शाश्वत शांति का उपदेश मिलते ही वह उसे चूस लेता है अर्थात् उसे तुरन्त अपने आत्मा में परिणमित कर लेता है। शुद्धात्मा निज शुद्ध स्वभाव की बात सुनते ही रोम-रोम में उत्साह जाग्रत होता है और वीर्य का (आत्मबल) वेग स्वभाव की ओर ढल जाता है। ऐसी दशा ही आत्मा की सच्ची लगन कही जाती है। जिसे आत्मा का हित करना हो उसे सत्संग स्वाध्याय करके आत्म स्वभाव का सच्चा निर्णय
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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