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________________ ५७ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ५ ] [ ५८ विवेक पूर्वक अपनी पात्रतानुसार परिणमन करता है. तत्व की चर्चा जीव को ऊपर उठाने मुक्त होने परमात्मा बनने के लिए है। स्वच्छन्दी, मानी विवेकशून्य प्रमादी होने के लिये नहीं है। इसके बाद जो जैसा हो उसका फल वह भोगेगा अपने को अपनी सावधानी और संभाल रखना अति आवश्यक है। प्रश्न - स्वच्छन्दपना कैसा होता है उसका स्वरूप क्या है? समाधान-जीव को संसार में भटकने वाले अधबीच में डुबोने वाले दो भाव हैं (१) संशय (२) स्वच्छन्दता (१) संशय- यह सत्य है या यह सत्य है, मैं जीव तो हूं पर कुछ न कुछ तो करना चाहिए? मैं सम्यग्दृष्टि हुआ या नहीं? अपने को कभी सम्यग्दृष्टि मानना, कभी मिथ्यादृष्टि मानना, यह संशय पतन का कारण है"संशयात्मा विनश्यति"। (२) स्वच्छन्दता-शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर अपने को सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मान लेना और मनमानी करना यह स्वच्छन्दपना है जो जीव को दुर्गति का पात्र बनाता है। इसका स्वरूप निम्न प्रकार है (१) शास्त्र संगत या विसंगत ज्ञान के क्षयोपशम संबंध में मैं समझता हूं "सब जानता हूं" ऐसा भाव होने से जिज्ञासा का अभाव रहना। (२) ज्ञानी सत्पुरुष के वचन में शंका और उसकी भूल देखने की वृत्ति होना। (३) ज्ञानी सत्पुरुषों का विरोध करना। (४) दूसरे के चारित्र दोष देखना, स्वयं असंयम अव्रत में रत रहना। (५) धर्म, धर्म कार्य, धर्म प्रभावना की अपेक्षा कुटुम्ब परिग्रहादि के प्रति अधिक राग रहना। (६) प्रत्यक्ष सत्पुरुष का योग होने पर भी शास्त्र स्वाध्याय को अधिक महत्व देकर सत्संग को गौण करना। (७) हर कार्य में हर बात में अपनी महत्ता प्रदर्शन का हेतु मुख्य रहना यह स्वच्छन्दता का अंतरंग स्वरूप है। बाहर में मनमानी करना सिद्धांत का दुरुपयोग चर्चा में करना, इस तरह के परिणाम अपने को ज्ञानी मानने वाले जीव के होते हैं। प्रश्न - वस्तु स्वरूप और द्रव्य की स्वतंत्रता क्या है? समाधान - वस्तु दो हैं- "जीवमजीव दब", जीव और अजीव, जड़ और चेतन, ब्रह्म और माया, प्रकृति और पुरुष,नाम शब्द भाषा के भेद हैं पर स्वरूप एक ही है। १.जीव - तत्व दृष्टि वस्तु स्वरूप से जीव ज्ञान मात्र चेतन सत्ता है जो एक अखंड अविनाशी, ध्रुव तत्व, ममल स्वभावी अभेद सिद्ध स्वरूपी, शुद्धात्म तत्व है। विशेषण लगाने और भेद कर कहने की अपेक्षा द्रव्य, पदार्थ, तत्व, अस्तिकाय रूप अनन्त चतुष्टय धारी, रत्नत्रयमयी, पंचज्ञान वाला परमेष्ठी पद धारी, परमात्मा जिसे कई नामों से कहा जाता है वस्तुत: अबद्ध, अस्पर्श, अनन्य, नियत, अविशेष, असंयुक्त ज्ञान स्वभावी है। जो जीव द्रव्य की अपेक्षा अनन्त हैं। जिसे संसारी अपेक्षा चौदह जीव समास, चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान वाला कहा जाता है। २.अजीव-जो जड, माया, प्रकृति, अचेतन कहा जाता है। चेतन सत्ता (जीव) के अतिरिक्त पूरा विश्व अजीवमय है। जैन दर्शन के अनुसार अजीव के पांच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल तथा तेईस सत्ता स्वरूप हैं जिसमें पुद्गल रूपी जड़ द्रव्य है शेष चार अरूपी अचेतन हैं। वैदिक दर्शन के अनुसार माया के तीन गुण- रजो गुण, तमोगुण, सत्वगुण जो पूरे विश्वमय हो रहे हैं, जो अन्धकार रूप मात्र भ्रम है। पुद्गल के ही भेद रूप- द्रव्यकर्म, भावकर्म, नो कर्म हैं। तत्व दृष्टि, वस्तु स्वरूप से पुद्गल अजीव शुद्ध परमाणु मात्र हैं। जो द्रव्य अपेक्षा अनन्तान्त हैं। इनमें स्कंधरूप अनन्त आकार रूप परिणमन करने की शक्ति हैं। इसका मिलना और बिखरना स्वभाव है। यह वस्तु का स्वरूप है जिसे जानने वाला सम्यग्ज्ञानी होता है। छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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