SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१] [मालारोहण जी किसी भी शुभाशुभ क्रिया रूप आचरण को धर्म मानना कुधर्म है । किसी भी शुभाशुभ भाव, पुण्य पाप कर्म को धर्म मानना अधर्म है। यह सब संसार के कारण हैं। सम्यग्दृष्टि साधक इनसे दूर रहता है अर्थात् न राग करता है, न द्वेष करता है। न अच्छे मानता है, न बुरे मानता है, न बैर करता है, न विरोध करता है, न निन्दा करता है, न स्तुति करता है, वह दूर ही रहता है क्योंकि "निज हेर बैठो नहीं तो रार करो" इस सिद्धान्त को मानता है। जैसे अपने को कहीं जाना है और मार्ग में कांटे पड़े हों गड्ढा हो या सांप बिच्छू शेर बैठा हो, तो दूर से बच कर निकल जाते हैं इसी प्रकार इनसे दूर रहो क्योंकि जरा भी बोलोगे-मिलोगे तो अपने मार्ग में व्यवधान पड़ जायेगा। सच्चा धर्म अपना चेतन लक्षणमयी शुद्ध स्वभाव है। धर्म जो धारण किया जाता है, जिससे जीवों का कल्याण होता है, वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। शुद्धं स्वरूपं, तत्वार्थ साधं अपने शुद्ध स्वरूप प्रयोजन भूत तत्व की साधना श्रद्धान करता है। इससे संसार के दुःखों से छूट जाता है क्योंकि संसार के मूल दुःख शल्य और विकल्प ही हैं। इनसे छूट जाना ही मुक्ति है। इसी बात को समयसार के सर्व विशुद्धि अधिकार में कहा है। शुद्ध नय का विषय जो ज्ञान स्वरूप आत्मा है। वह कर्तृत्व भोक्तृत्व के भावों से रहित है। बंध-मोक्ष की रचना से रहित है पर द्रव्य से और पर द्रव्य के समस्त भावों से रहित होने से शुद्ध है। निज रस के प्रवाह से पूर्ण दैदीप्यमान ज्योति रूप है और टंकोत्कीर्ण महिमामय है ऐसा ज्ञान पुंज आत्मा अपना निज शुद्ध स्वरूप है। यह आत्मा अनादि संसार से ही अपने और पर के भिन्न-भिन्न निश्चल स्वलक्षणों का ज्ञान, भेदज्ञान न होने से दूसरे का और अपना एकत्व का अध्यास करने से कर्ता होता हुआ प्रकृति के निमित्त से उत्पत्ति विनाश को प्राप्त होता है। प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पत्ति विनाश को प्राप्त होती है अर्थात् आत्मा के परिणामानुसार परिणमित होती है इस प्रकार यद्यपि आत्मा और प्रकृति के कर्ता कर्म भाव का अभाव है तथापि परस्पर निमित्त नैमित्तिक गाथा क्रं. ५ ] [ ५२ भाव से दोनों के बंध देखा जाता है। इससे संसार है और इसी से आत्मा और प्रकृति के कर्ता कर्म का व्यवहार है। जब तक आत्मा प्रकृति के निमित्त से उपजना विनशना न छोड़े तब तक वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि असंयत है। अज्ञानी को तो शुद्धात्मा का ज्ञान नहीं है इसीलिए जो कर्म उदय में आता है उसी को वह निज रूप जानकर भोगता है और ज्ञानी को शुद्धात्मा का अनुभव हो गया है इसलिए वह उस प्रकृति के उदय को अपना स्वरूप नहीं जानता हुआ उसका मात्र ज्ञाता ही रहता है भोक्ता नहीं होता । ज्ञानी कर्म का स्वाधीनतया कर्ता भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है इसलिए वह मात्र शुद्ध स्वभाव रूप होता हुआ मुक्त ही है। कर्म उदय में आता है फिर भी वह ज्ञानी का क्या कर सकता है, जब तक निर्बलता रहती है तब तक कर्म जोर चला लें किन्तु ज्ञानी क्रमश: शक्ति बढ़ाकर अन्त में कर्म का समूल नाश करेगा ही । जब तक ज्ञान, ज्ञान रूप न हो और ज्ञेय, ज्ञेय रूप न हो, तब तक राग द्वेष उत्पन्न होता है, इसलिए इस ज्ञान अज्ञान भाव को दूर करके ज्ञान रूप होओ कि जिससे ज्ञान में जो भाव और अभाव रूप दो अवस्थायें होती हैं वे मिट जायें और ज्ञान पूर्ण स्वभाव को प्राप्त हो जाये । वर्तमान काल में कर्म का उदय आता है उसके विषय में ज्ञानी विचार करता है कि पहले जो कर्म बांधा था उसका यह कार्य है मेरा तो यह कार्य नहीं है। मैं इसका कर्ता नहीं हूँ मैं तो शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा हूँ। उसकी दर्शन ज्ञान रूप प्रवृत्ति है । उस दर्शन ज्ञान रूप प्रवृत्ति के द्वारा मैं इस उदयागत कार्य को देखने जानने वाला हूँ मैं अपने स्वरूप में ही प्रवर्तमान हूँ ऐसा अनुभव करना ही निश्चय चारित्र है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत दशा में तो ऐसा ज्ञान श्रद्धान ही प्रधान है। जब जीव अप्रमत्त दशा को प्राप्त होकर श्रेणी चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है। इस प्रकार ज्ञानी अपने स्वरूप की साधना करता है।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy