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________________ ४१ ] [मालारोहण जी अविनश्वर अनादि निधन जैसा हूँ वैसा ही विद्यमान हूँ। इस प्रकार अपने शुद्धात्म रूप परिणमे तो अशुद्ध परिणति मिटे । शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने पर जिस प्रकार नय विकल्प मिटते हैं उसी प्रकार समस्त कर्म के उदय से होने वाले जितने भाव हैं, वे भी अवश्य मिटते हैं ऐसा स्वभाव है। शुभ-अशुभ क्रिया में मग्न होता हुआ जीव विकल्पी है इससे दुःखी है क्रिया संस्कार छूटकर शुद्ध स्वरूप का अनुभव होते ही जीव निर्विकल्प है इससे सुखी है। इस प्रकार अनादि से मोह युक्त जीव के तीन परिणाममिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति हैं और इन तीन बंधनों में ही जीव बंधा है। (१) मिथ्यात्व - विपरीत मान्यता यह शरीर ही मैं हूँ। यह मान्यता ही मिथ्यात्व है, इससे छूटने के लिए भेदविज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन होना कि मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा हूँ ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय श्रद्धान होने से मिथ्यात्व छूट जाता है यह मिथ्यात्व ही संसार परिभ्रमण का कारण है। मिथ्यात्व के छूटने सम्यग्दर्शन के होने से संसार परिभ्रमण मिट जाता है। रागादि से भिन्न चिदानन्द स्वभाव का भान और अनुभव होने पर धर्मी को उसका निसन्देह ज्ञान होता है कि आ हा हा, परम सौभाग्य मुझे आत्मा का अपूर्व आनन्द का वेदन हुआ अतीन्द्रिय आनन्द सम्यग्दर्शन हुआ मेरे मिथ्यात्व का नाश हो गया। मैं समकिती हूँ या मिथ्यादृष्टि ऐसा संदेह जिसे है वह मिथ्यादृष्टि है। चौथा गुणस्थान वर्ती ही सम्यग्दृष्टि है जिसने आत्मा के आनन्द का रस का आस्वादन किया है वह निजरस से ही राग से विरक्त है। धर्मी को शुद्ध चैतन्य के अमृतमय स्वाद के सामने संसारी विषयादि राग का रस विष-तुल्य भासता है। ज्ञानी को चाहे जैसे भाव में चाहे जैसे प्रसंग में साक्षी रूप से रहने की गाथा क्रं. ४ ] क्षमता है वह सर्व प्रकार के भावों के बीच - साक्षी रूप से रहता है। (२) अज्ञान - अपने सत्स्वरूप का विस्मरण और यह शरीरादि मेरे हैं- यह मानना अज्ञान है, यही मोह है जो दुःख का कारण है, इसी से जीव हमेशा दुःखी रहते हैं इसी के कारण राग-द्वेष होते हैं । जहाँ अपनत्व (अपनापन) होता है वहीं अच्छा बुरा लगता है, जहाँ अपनत्व नहीं होता वहाँ अच्छा-बुरा सुख दुःख रूप कुछ लगता ही नहीं है। [ ४२ जब सम्यग्दर्शन पूर्वक संशय विभ्रम विमोह रहित सम्यग्ज्ञान हो जाता है तब फिर यह अज्ञानरूप मोह राग द्वेष रूप भाव होते ही नहीं हैं। स्व-पर का यथार्थ निर्णय, ज्ञान होने पर फिर यह अज्ञान रूप (मोह राग द्वेष) विभाव परिणमन होता नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि अशुद्ध परिणामों का स्वामित्वपना नहीं है इसीलिये सम्यग्दृष्टि जीव कर्ता नहीं है। मिथ्यादृष्टि जीव के रागादि अशुद्ध परिणामों का स्वामित्वपना है इसलिये मिथ्यादृष्टि जीव कर्ता है। (कलश - १७६ - १७७ ) जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध स्वरूप को अनुभवता है वह सम्यग्दृष्टि जीव, कर्म की उदय सामग्री में अभिलाषा नहीं करता और जो कोई मिथ्यादृष्टि कर्म की विचित्र सामग्री को आप जानकर अभिलाषा करता है वह मिथ्या दृष्टि जीव शुद्ध स्वरूपी आत्मा को नहीं जानता। (समयसार कलश १६७ ) जब तक किसी को भी संसार परिवार धन वैभव शरीरादि को अपना मानता है तथा मन में चलने वाले भाव विभाव अथवा एक समय की चलने वाली अशुद्ध पर्याय को अपनी मानता है तब तक मोह में जकड़ा अज्ञानी है तथा इनमें से किसी को भी अच्छा बुरा मानता है तब तक राग द्वेष से ग्रसित अज्ञानी है। इन सबसे भिन्न मैं ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ ऐसा सत्श्रद्धान ज्ञान हो जाने पर मोह राग द्वेष के भावों से छूट जाता है।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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