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________________ ३७ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ४ ] [ ३८ इससे पूर्व बद्ध कर्म क्षय होंगे और वह पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध परमात्मा हो जायेगा। सम्यग्दर्शन में एक समय में ही परिपूर्ण अपना पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध स्वरूप दिख जाता है, ज्ञान और चारित्र में क्रमश: विकास होता है। जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय की पूर्णता होती है तभी वास्तविक मुक्ति होती है। प्रश्न- जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, कर नहीं सकता। एक पर्याय दूसरी पर्याय का कुछ नहीं करती, फिर यह मिथ्यात्व मोह आदि तो पुद्गल कर्म वर्गणायें हैं, इन्हें तोड़ने, छोड़ने की बात समझ में नहीं आती यह कैसा कहा प्रश्न- जब जीव शुद्ध-बुद्ध अविनाशी, सिद्ध, स्वलपी शुखात्म तत्व है, फिर इन कमों से क्या लेना देना, क्या मतलब रहा? समाधान - मतलब तो कुछ नहीं रहा पर अभी चक्कर नहीं छूटा है। इस चक्कर से छूटने और बचने के लिए ही यह साधना करनी पड़ती है तभी अपना परमात्म पद सिद्ध स्वरूप प्रगट होता है। इसमें सबसे पहली बात तो यही है कि मैं शुद्ध-बुद्ध, अविनाशी, सिद्ध स्वरूपी, शुद्धात्म तत्व हूँ। ऐसा सत्श्रद्धान, निश्चय सम्यग्दर्शन होना पहले आवश्यक है फिर इनसे छूटने-बचने की बात होती है। प्रश्न- क्या भेदज्ञान-सम्यग्दर्शन से मुक्ति नहीं होती? समाधान -...नहीं, अकेले सम्यग्दर्शन से मुक्ति नहीं होती और सम्यग्दर्शन के बगैर भी मुक्ति नहीं होती सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र की एकता मोक्षमार्ग है, रत्नत्रय की पूर्णता मोक्ष है। जीव द्रव्य, स्वभाव से शुद्ध है पर वर्तमान में पर्याय में अशुद्धि है। यह अशुद्धि जीव द्रव्य के गुणों पर कर्मों का आवरण होने से हो गई है तथा पर्याय में ही अशुद्धि है। जीव तो एक ही है पर, तत्व, पदार्थ, द्रव्य, अस्तिकाय का भेद क्यों है? जीव अरूपी चेतन लक्षणवाला, पुद्गल रूपी अचेतन जड़ है फिर यह मिले क्यों हैं? यह सब जानना आवश्यक है। वर्तमान में हम क्या हैं? यह सब विशेष जानने हेतु श्री (तारण तरण) ज्ञान समुच्चयसार की गाथा क्र.७६५ से ८३२ तक देखें। तत्व - श्रद्धा का विषय है। पदार्थ - ज्ञान का विषय है । द्रव्य - चारित्र का विषय है। अस्तिकाय -तप का विषय है। मुक्ति मार्ग के साधक सम्यग्दृष्टि को कैसी साधना करना पड़ती है, यह सदगुरू श्री जिन तारणस्वामी के ग्रंथों का स्वाध्याय मनन करें तब पता चलेगा सम्यकदर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, यह चार आराधना हैं। जो महामुनि इन चार आराधनाओं को आराधते हैं वे ही मुक्ति पाते हैं। अनादि से जीव ने अपने स्वरूप को देखा जाना नहीं है इसीलिये मिथ्यादृष्टि अज्ञानी बना रहा । अपने को जाना तब वह सम्यग्दृष्टि ज्ञानी हुआ। जब वह अपने स्वरूप में स्थिर लीन रहेगा यह सम्यग्चारित्र है, समाधान- (समयसार गाथा ८७से ९०तक)जो मिथ्यात्व कहा है वह दो प्रकार का है - एक जीव मिथ्यात्व और दूसरा अजीव मिथ्यात्व, इसी प्रकार अज्ञान, अविरत, योग, मोह, क्रोधादि कषाय यह सर्व भाव जीव व अजीव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि मिथ्यात्वादि कर्म की प्रकृतियां पुद्गल द्रव्य के परमाणु हैं,जीव उपयोग स्वरूप है। उसके उपयोग की ऐसी स्वच्छता है कि पौद्गलिक कर्म का उदय होने पर उसके उदय का जो स्वाद आवे उसके आकार उपयोग हो जाता है। अज्ञानी को अज्ञान के कारण उस स्वाद का और उपयोग का भेदज्ञान नहीं है इसीलिये उस स्वाद को ही अपना भाव समझता है। जब उनका भेदज्ञान होता है अर्थात् जीव भाव को जीव जानता है और अजीव भाव को अजीव जानता है तब मिथ्यात्व का अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है। जो मिथ्यात्व योग अविरति और अज्ञान, अजीव हैं वह तो पुदगल कर्म हैं और जो अज्ञान अविरति और मिथ्यात्व जीव हैं, वह उपयोग है। (गाथा ८८) अनादि से मोह युक्त होने से उपयोग के अनादि से लेकर तीन परिणाम हैं-वे मिथ्यात्व अविरत और अज्ञान भाव हैं, यद्यपि निश्चय से अपने निजरस से ही सर्व वस्तुओं की अपने स्वभाव भूत स्वरूप परिणमन सामर्थ है तथापि
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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