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________________ २९ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ४ ] शब्दार्थ- (संसार दुष्यं) संसार दु:ख रूप है (जे नर) जो नर (सम्यग्दृष्टि) (विरक्तं) छूटना चाहता है (ते) वह (समय सुद्ध) शद्ध समय (शुद्धात्मा) को (जिन उक्त) जिनेन्द्र के कहे अनुसार (दिस्ट) देखे (मिथ्यात) मिथ्यात्व (मय) मद (मोह) मोह (रागादि) राग-द्वेष (पंड) खंडन करें, तोड़ें (ते) वह (सुद्ध दिस्टी) सम्यग्दृष्टि (तत्वार्थ साध) तत्वार्थ के श्रद्धानी साधक हैं। विशेषार्थ-जो नर (सम्यग्दृष्टि) जिन्हें संसार दु:ख रूप लगने लगा, जो पंच परावर्तन रूप संसार के जन्म-मरण आदि दु:खों से छूटना चाहते हैं, वे जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखते हैं और मिथ्यात्व, मद, मोह, रागादि को छोड़ते हैं वही शुद्धदृष्टि तत्वार्थ के श्रद्धानी हैं, जो निज शुद्धात्मा की साधना से, संसार के दुःखों से छूट जाते हैं। सम्यग्दृष्टि क्या करता है? कैसा रहता है ? संसार कैसा लगता है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह चौथी गाथा सद्गुरू कहते हैं कि जो नर (सम्यग्दृष्टि) संसार दु:ख रूप है, ऐसा जानकर इससे विरक्त होते हैं, छूटना चाहते हैं, क्योंकि जिसे संसार सुख रूप लगता है, वह मिथ्यावृष्टि है और जिसे संसार दु:ख रूप लगता है, वह सम्यग्दृष्टि है। निश्चय से-अपने स्वरूप से खिसक जाना, हट जाना ही संसार है और यही सम्यग्दृष्टि को दु:ख रूप लगता है और व्यवहार से संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव यह पंच परावर्तन रूप जिसमें चार गति चौरासी लाख योनियों के जन्म-मरण का चक्र चलता है। भय, चिन्ता, शोक, ताप, आक्रन्दन, बध, बंधन, क्षुधा, तृषा, रोग आदि असीम दुःखों की खानि है। इसी बात को श्री गुरू तारणस्वामी ने श्रावकाचार की १५ वीं गाथा में अव्रत सम्यक्दृष्टि का स्वरूप बताते हुए कहा है कि संसारे भय दुग्यानि, वैरागं जेन चिंतये । संसार भय और दुःख की खानि है, इससे जो वैरागी छूटने का चिन्तवन करता है वह अव्रत सम्यग्दृष्टि है। वर्तमान में मनुष्य का संसार अपना धन, शरीर, परिवार है, जो अपने-अपने संसार में रत रहते हैं। अब यह सब बंधन दुःख रूप लगने लगा क्योंकि विकल्प ही दुःख हैं और सम्यग्दृष्टि ज्ञानी को विकल्प पुसाते नहीं हैं। तो जो इनसे छूटना चाहता है, वह नर सम्यग्दृष्टि है। जब तक संयोग, संबन्ध रहेगा विकल्प होते ही हैं। इसलिये इनसे हटने बचने के लिए मिथ्यात्व, मद, मोह, राग-द्वेषादि का खंडन करता है, तोड़ता है, छोड़ता है तथा जिनेन्द्र सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है वैसे अपने शुद्धात्म स्वरूप को देखता है। वह सम्यग्दृष्टि साधकसंसार के दु:खों से छूटता है, मोक्ष को प्राप्त होता है। इसी बात को समयसार कलश १८१ में कहा है कि जीव द्रव्य तथा कर्म पर्यायरूप, परिणत पुद्गल द्रव्य का पिंड इन दोनों का एक बंध पर्याय रूप सम्बंध अनादि से चला आया है, सो ऐसा संबन्ध जब छूट जाये, जीव द्रव्य अपने शुद्ध स्वरूप रूप परिणवे, अनन्त चतुष्टय रूप परिणवे तथा पुद्गल द्रव्य-ज्ञानावरणादि कर्म पर्याय को छोड़े, जीव के प्रदेशों से सर्वथा अबंध रूप होकर सम्बंध छट जाये, जीव-पुदगल दोनों भिन्न-भिन्न हो जावें, उसका नाम मोक्ष कहने में आता है, उस भिन्न-भिन्न होने का कारण, ऐसा जो मोह-राग-द्वेष इत्यादि विभाव रूप अशद्ध परिणति के मिटने पर जीव का शुद्धात्म रूप परिणमन सर्वथा सकल कर्मों के क्षय करने का कारण है। यहाँ कोई प्रश्न करता है किप्रश्न - जिस जीव ने भेदविज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति कर ली, जो सम्यग्दृष्टि हो गया उसे कुछ करने, छोड़ने की तो बात ही नहीं होना चाहिये क्योंकि जब उसने शरीरादिको और अपने शुद्ध स्वरूप को भिन्न-भिन्न जान लिया फिर अब क्या रह गया? उसका समाधान करते हैं कि अनादि से जीव अपने स्वरूप को भूला द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म इन तीनों कर्म के बंधन में बंधा है। अभी तक यह मैं हूँ, ये मेरे हैं, मैं इनका कर्ता-भोक्ता हूँ, ऐसी मिथ्या मान्यता से संसार में रुलता चला आ रहा है। अभी उसने भेदविज्ञान पूर्वक अपने स्वरूप को और इनको भिन्न-भिन्न जाना है पर वह अभी इनसे छूटा तो नहीं है। इन
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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