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________________ २३ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ३] [ २४ निद्रा, स्नेह - (१५, इनसे सदैव बचते रहना) (५) भेदज्ञान-तत्वनिर्णय का निरन्तर अभ्यास करना। भेदज्ञान - इस शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा हूँ, यह शरीर आदि मैं नहीं और यह मेरे नहीं। तत्वनिर्णय - जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जैसा जो कुछ होना है, वह अपनी तत् समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा, उसे कोई भी टाल फेरबदल सकता नहीं। ऐसा जीवन बनने पर स्वरूप की अनुभूति सम्यग्दर्शन सहज में हो जाता है। आत्म कल्याण, मुक्ति की भावना, संयममय, सदाचारी जीवन, स्वाध्याय, सत्संग और सामायिक ध्यान का अभ्यास करने वाले को सम्यग्दर्शन अवश्य होता है, जिसके होते ही लोकालोक को जानने वाला केवलज्ञान स्वरूप शुद्धात्म तत्व स्पष्ट अनुभव में आ जाता है। अपूर्व अतीन्द्रिय आनन्द अमृत रस झरने लगता है, अनादि अज्ञान अंधकार समाप्त हो जाता है। तीन मिथ्यात्व, चार अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम, क्षय, क्षयोपशम हो जाता है। ४१ कर्म प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति हो जाती है. १५ कर्म प्रकतियों की उदय व्युच्छित्ति हो जाती है। सम्यग्दर्शन होते ही संसार की मौत आ जाती है वह फिर संसार में रहता ही नहीं है। दो,चार,दस भव में मुक्त हो जाता है, यह धर्म की, अपने शुद्ध स्वरूप की बड़ी अपूर्व महिमा है। प्रश्न - सम्यग्दर्शन होने पर क्या विशेषता होती है? समाधान - जिसे सम्यग्दर्शन होता है उसकी (१) शरीर धनादि की इष्ट बुद्धि समाप्त हो जाती है। (२) पापों से, विषय भोगों से अरूचि होने लगती है। (३) व्यर्थ चर्चा, संसारी प्रपंच अच्छे नहीं लगते। (४) अन्तर से बैर-विरोध भाव मिट जाता है। (५) धर्म और धर्मी जीवों के प्रति प्रेम, स्नेह,वात्सल्य के भाव होते हैं, धर्म प्रभावना, तन-मन-धन से करता है। (६) जीने की इच्छा, मरने का भय, पाने का लालच और करने का राग नहीं रहता। (७) संसारी सात भय विला जाते हैं-इस लोक भय, पर लोक भय, अकस्मात भय, वेदना भय, अगुप्ति भय, अनरक्षा भय, मरण भय यह सात भय नहीं होते। (८) आठ अंग प्रगट हो जाते हैं-नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना, यह आठ अंग प्रगट हो जाते हैं। (९) पहली-मेरा अपना कोई नहीं है, कुछ भी नहीं है। दूसरी-मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिए। तीसरी-मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं करना है, यह तीन बातें हमेशा उसके अन्तरंग में गूंजती रहती हैं। (१०) आठ शंकादि दोष, आठमद, छह अनायतन, तीन मूढता, यह पच्चीस दोष विला जाते हैं। इस प्रकार की कई विशेषतायें उसके जीवन में प्रगट होने लगती हैं। सब जीवों के प्रति, मैत्री, प्रमोद, कारूण्य, माध्यस्थ भाव रहता है। जीव की अपनी पात्रतानुसार-अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं। मुख्य बात तो एक ही है कि मैं आत्मा शुद्धात्मा-परमात्मा हूँ यह शरीरादि मैं नहीं और मेरे नहीं हैं। ऐसा भेदज्ञान पूर्वक निर्णय सत्श्रद्धान होने से जीवन में आनन्द ही आनन्द रहता है। फिर बाहर से कैसी परिस्थिति में रहना पड़ता है, क्या करना पड़ता है, इसका कोई महत्व नहीं रहता। इसके लिये एक कथानक है, जिससे अपनी बात स्पष्ट हो जायेगी। एक गाँव में एक सेठ रहता था, उसकी पत्नी थी और उनके एक ही बालक था, जिसकी उम्र पाँच वर्ष थी। एक बार उस गाँव में डाकू आये और उस बालक का अपहरण करके ले गये, सोचा २-४ लाख रूपया लेकर छोड देंगे, पर जब वह अपने ठिकाने पर पहुँचे तो जो डाकुओं का सरदार था, उसने बालक को देखा, बालक की सुन्दरता, होनहारता देखकर उसके मन में उसके
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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