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________________ २२५ ] [मालारोहण जी जीवों में धर्म के प्रति उत्साह, बहुमान आता है, धर्म प्राप्त करने की योग्यता विकसित होती है, धर्म का प्रकाश होता है। हे भव्य ! तू भाव श्रुतज्ञान रूपी अमृत का पान कर । सम्यक् श्रुतज्ञान द्वारा आत्मा का अनुभव करके निर्विकल्प आनन्द रस का पानकर, जिससे तेरी अनादि मोह तृषा की दाह मिट जाये। तूने चैतन्य रस के प्याले कभी नहीं पिये हैं। अज्ञान से तूने मोह, राग-द्वेष रूपी विष के प्याले पिये हैं, अब तो वीतराग के वचनामृत प्राप्त करके अपने आत्मा के चैतन्य रस का पानकर, जिससे तेरी आकुलता मिट कर सिद्ध पद की प्राप्ति हो । राजा श्रेणिक ने जब भगवान महावीर की यह दिव्य देशना, वस्तु स्वरूप सुना तो आनन्द विभोर होकर जय जयकार मचाने लगा। फिर प्रश्न करता है, प्रभो ! सिद्ध परमपद पाने का क्या एक ही मार्ग सम्यग्दर्शन ही है ? क्या कोई दूसरा उपाय या मार्ग नहीं है और इस पर कौन चल कर सिद्ध परमपद मोक्ष प्राप्त कर सकता है ? इसके समाधान में भगवान की दिव्य ध्वनि में आता है, अगली गाथा गाथा - ३२ जे सिद्ध नंतं मुक्ति प्रवेसं, सुद्धं सरूपं गुन माल ग्राहितं I जे केवि भव्यात्म संमिक्त सुद्धं, ते जांति मोष्यं कथितं जिनेन्द्रं ॥ शब्दार्थ- (जे) जो (सिद्ध नंतं) अनन्त सिद्ध (मुक्ति प्रवेसं ) मुक्ति को प्राप्त हुये हैं (सुद्धं सरूपं) अपने शुद्धात्म स्वरूप (गुन माल) गुणों की माला (ग्रहितं) ग्रहण की, धारण की (जे) जो (केवि) कोई भी (भव्यात्म) भव्यात्मा (संमिक्त सुद्धं) शुद्ध सम्यक्त्व, निश्चय सम्यग्दृष्टि (ते) वह (जांति) जायेंगे (मोष्यं) मोक्ष को (कथितं जिनेन्द्रं) जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा, निरूपण किया । विशेषार्थ - जो अनन्त सिद्ध परमात्मा अनादि कालीन संसार के पंच परावर्तन रूप परिभ्रमण से छूटकर मुक्ति को प्राप्त हुये हैं, उन सबने रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला शुद्ध स्वरूपानुभूति को ग्रहण किया है। इसी प्रकार जो कोई भी भव्यजीव सम्यक्त्व से शुद्ध होंगे, निज शुद्धात्मानुभूति पूर्वक गाथा क्रं. ३२ ] आत्म ध्यान धरेंगे, वे भी सब मोक्ष को प्राप्त करेंगे। ब्रह्मानन्दमयी ज्ञान स्वभाव में लीन रहेंगे। यह श्री जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर ने कहा है। हे राजा श्रेणिक ! एक होय त्रिकाल मां परमार्थनो पंथ । मुक्ति का मार्ग तो अनादि निधन एक ही है सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्गः, जो अनन्त सिद्ध परमात्मा हुये हैं, हो रहे हैं, होंगे, उन सबने ही अपने शुद्धात्म स्वरूप के ज्ञान श्रद्धान पूर्वक शुद्ध स्वभाव में एकाग्र लीन हुये, वह सब मुक्ति को प्राप्त हुये । यह रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र मयी शुद्धात्म स्वरूप अथवा परम सुख, परम शान्ति, परमानन्द का भंडार निज आत्म स्वरूप जो अनन्त गुणों का धारी एक अखंड, अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा है। इसका भेदज्ञान पूर्वक अनुभूति श्रद्धान करने वाला ही सिद्ध परमात्मा हुआ है और अब जो कोई भी भव्य जीव ऐसे, अपने शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति ज्ञान श्रद्धान करेंगे, वह मुक्ति को प्राप्त होंगे, अन्य कोई मुक्ति का दूसरा उपाय या मार्ग नहीं है तथा इसमें किसी जीव के लिए कोई बन्धन नहीं है, जाति, कुल, सम्प्रदाय, ऊँच-नीच, छोटा, बड़ा, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव, कोई भी हो अपने स्वरूप का ज्ञान श्रद्धान कर मुक्ति पा सकता है। [ २२६ निश्चय दृष्टि से प्रत्येक जीव परमात्म स्वरूप ही है। जिनवर और जीव में अन्तर नहीं है, भले ही वह एकेन्द्रिय जीव हो या स्वर्ग का जीव हो, वह सब तो पर्याय है। आत्मवस्तु तो स्वरूप से परमात्मा ही है। जो निगोद में सो ही मुझ में, सो ही मोक्ष मंझार । निश्चय भेद कछु भी नाहीं, भेद गिने संसार ॥ स्वामी देहाले सोई सिद्धाले भेउ न रहे । जन जाके अन्मोय सो न्यानी मुक्ति लहे ॥ अति अल्पकाल में जिसे संसार परिभ्रमण से मुक्त होना है, ऐसे अति आसन्न भव्य जीव को निज परमात्म स्वरूप के सिवाय अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है। जिसमें कर्म की कोई अपेक्षा नहीं है, ऐसा जो अपना शुद्ध परमात्म तत्व उसका आश्रय करने से सम्यग्दर्शन होता है और उसी का आश्रय करने से सम्यग्चारित्र होता है और उसी का आश्रय करने से अल्पकाल में मुक्ति
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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