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________________ २०७] [मालारोहण जी गाथा क्रं.२७] [ २०८ की तीन प्रकृति - मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, समयग्प्रकृति मिथ्यात्व, इन तीनों प्रकृतियों के क्षय होने पर मिथ्यात्व जाता है, यदि अभी उपशम या वेदक की स्थिति है, तो वहाँ सम्यग्दर्शन में गड़बड़ रहेगी। असत्पना संशय, विभ्रम, विमोह यह ज्ञान के बाधक कारण हैं, इनके छूटने पर सम्यग्ज्ञान की शुद्धि होती है तथा राग द्वेष विभाव यह सम्यग्चारित्र के बाधक कारण हैं, इनके छूटने पर वीतरागता से सम्यग्चारित्र सही होता है। इसके पूर्णत: सही होने पर ही रत्नत्रयमालिका हृदय कंठ में झलती है और वही ज्ञानी सारे कर्मों से मुक्त होकर मुक्ति को पाता है। प्रश्न २-प्रभो। जब आप पूर्ण केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हैं, आपके ज्ञान में त्रिलोक का त्रिकालवी परिणमन प्रत्यक्ष मालक रहा है, कौन कैसा है? यह सब आपके ज्ञान में आ रहा है फिर आप यह सब स्पष्ट न बताकर, वस्तु स्वरूप सिद्धान्त का ही निर्णय क्यों दे रहे हैं? समाधान- हे राजा श्रेणिक! यह पवित्र जैन दर्शन का मार्ग अनेकान्त, स्याद्वादमयी है, अहिंसा प्रधान वीतराग मयी है । द्रव्य की स्वतंत्रता, एकएक परमाणु और पर्याय का परिणमन स्वतंत्र है। जीव की पात्रतानुसार उसका परिणमन, निमित्त, नैमित्तिक सम्बंध और पांच समवाय के आधार पर सब हो रहा है। इसमें कोई कुछ कर भी नहीं सकता। यहाँ जो प्रश्न तुम कर रहे हो, उसका सैद्धान्तिक निर्णय और वस्तु स्वरूप बताया जा रहा है। कौन कैसा है, क्या कर रहा है? इससे तो हमें प्रयोजन ही नहीं है। व्यक्तिगत बात करना राग-द्वेष का कारण है। प्रश्न ३-प्रभो ! फिर आपके त्रिकाल सर्वदर्शी परमात्मा होने का क्या लाभ है? समाधान - पर से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, हम अपने में पूर्ण परमानन्द मय हैं। प्रश्न ४ - प्रभो ! फिर आपके दर्शन करने दिव्य ध्वनि सुनने से क्या लाभ है? समाधान - हमें देखकर और दिव्य ध्वनि सुनकर किसी को अपने आत्म स्वरूप का बोध हो जाये, परमानन्द पद का, धर्म का बहुमान आ जाये, मनुष्यभव को सफल बनाने का पुरूषार्थ जग जाये, यह जीव की अपनी पात्रता, तत्समय की योग्यता की बात है। प्रश्न५-प्रभो! आपके दर्शन, पूजन करने से दिव्य ध्वनि सुनने सेतो लाभ होता हैया नहीं? समाधान - जिस जीव के जैसे परिणाम हों, उसका वैसा होता है, प्रत्येक जीव अपने - अपने परिणामों में स्वतंत्र है, हमारे उससे कुछ नहीं होता। प्रश्न ६ -प्रभो ! आपकी उपस्थिति आपके निमित्त से कुछ न कुछ अंतर तो पड़ता है,जैसे मेरा इतना बड़ा उपकार हो गया-यह तो सत्य है? समाधान- द्रव्य की अपनी उपादान पात्रता के अनुसार निमित्त मिलता है, निमित्त कुछ नहीं करता। जिन जीवों की जैसी उपादान पात्रता होनहार होती है, वैसे निमित्त स्वयमेव मिलते हैं। अगर मेरी उपस्थिति और निमित्त से तुम्हारा उपकार हो गया, इतना बड़ा काम बन गया, तो इन सब जीवों का क्यों नहीं हुआ? इन सबको भी क्षायिक सम्यक्त्व, तीर्थकर प्रकृति का बंध होना चाहिए था। यह जिनेन्द्र परमात्माओं की देशना, जैन दर्शन अपूर्व मार्ग है। जब राजा श्रेणिक ने यह सब सुना तो उसके ज्ञान का संशय, विभ्रम दूर हो गया, जय-जयकार मचाने लगा,पवित्र जैन धर्म की जय हो. भगवान महावीर स्वामी कीजय हो।धन्य हो-धन्य हो,प्रभु आपका शासन पराधीन वृत्ति को छुड़ाकर बाह्य साधन में भटकती व्यग्रबुद्धि को दूर करता है और स्वाधीन चैतन्य वृत्ति के द्वारा परम सुख प्राप्त कराता है, आपका शासन ही हमें परम इष्ट है। प्रभो! अनन्त स्वाधीन शक्ति वाला आत्मा आपके शासन में दिखलाया है वैसे आत्मा को ज्ञान में, प्रतीति में लेकर जो उसके सम्मुख होता है, उसे अपने स्वभाव में से ही सभी गुणों का निर्मल कार्य होने लगता है। उसे सम्यग्दर्शन होता है, सम्यग्ज्ञान होता है, सम्यग्चारित्र होता है, सुख होता है, प्रभुत्व होता है, स्वच्छता होती है, ऐसे अनन्त गुण के निर्मल कार्य रूप
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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