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________________ २०३] [मालारोहण जी गाथा क्रं.२७] [ २०४ श्रेणिक ने फिर प्रश्न किया कि प्रभो ! यह इतने साधु साध्वी बैठे हैं, इनके तो सब आशा, स्नेह, लाज, भय, गारव छूट गये यह तो सब इस रत्नत्रय मालिका के अधिकारी मुक्ति को प्राप्त करने वाले हैं, अब इसमें तो कोई गड़बड़ नहीं है? तब भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि में आता है, आगे गाथा गाथा-२७ जे दर्सनं न्यान चारित्र सुद्धं, मिथ्यात रागादि असत्यं च तिक्तं । ते माल दिस्टं हिदै कंठ रूलितं, संमिक्त सुद्धं कर्म विमुक्तं ॥ शब्दार्थ-(जे) जो साधु (दर्सनं न्यान चारित्र सुद्धं) शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के धारी हैं। जिनके (मिथ्यात )मिथ्यात्व (रागादि)राग-द्वेष (असत्यं च तिक्तं) और असत्य भाव छूट गये हैं (ते) वह (माल दिस्टं) रत्नत्रय मालिका को देखते हैं (हिद कंठ रूलितं) उनके हृदय कंठ पर झुलती है (संमिक्त सुद्ध) जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि होते हैं (कर्म विमुक्तं) वह कर्मों से छूटते हैं, मुक्ति प्राप्त करते हैं। विशेषार्थ- जो ज्ञानी साधक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से शुद्ध हैं अर्थात् वीतरागी साधु पद पर स्थित हैं, जिनका मिथ्यात्व छूट गया है, जो क्षणभंगुर रागादि भावों में नहीं बहते, बल्कि ज्ञायक स्व समय शुद्धात्म-स्वरूप में लीन रहते हैं- वही ज्ञानी अपने हृदय कंठ में रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को झलती हुई देखते हैं अर्थात् हरक्षण चिदानन्द मयी ध्रुवधाम का अनुभव करते हैं। इसी शुद्ध सम्यक्त्वमयी स्वभाव लीनता से कर्मों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। ____भगवान महावीर, राजा श्रेणिक की जिज्ञासा का समाधान करते हैं कि यहाँ जो इतने साधु बैठे हैं, इनमें जो साधु सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से शुद्ध हैं अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति युत जो अपने स्वरूप की साधना में रत हैं। जिनका मिथ्यात्य, राग-द्वेष और असत् पना छूट गया है। वही इस रत्नत्रय मालिका को अपने हृदय कंठ में रूलती देखते हैं । निरन्तर अपने आत्मीक आनन्द परमानन्द में रहते हुये, सारे कर्म मलों से मुक्त होकर केवलज्ञान स्वरूप अरिहन्त पद और पूर्ण मुक्त सिद्ध पद पाते हैं। अज्ञानी जीव को अनादि काल से विभाव का अभ्यास है। शुभ परिणाम धारणा आदि का थोड़ा पुरुषार्थ करके मैंने बहुत किया है. ऐसा मानकर जीव आगे बढ़ने के बदले अटक जाता है। अज्ञानी को जरा कुछ आ जाये, कुछ हो जाये, थोड़ा बुद्धि का क्षयोपशम हो वहाँ उसे अभिमान हो जाता है क्योंकि वस्तु के अगाध स्वरूप का उसे ख्याल ही नहीं है, इसलिये वह बुद्धि के विकास शुभाचरण रूप क्रिया आदि में संतुष्ट होकर अटक जाता है। ज्ञानी को पूर्णता का लक्ष्य होने से वह अंश में अटकता नहीं है। पूर्ण पर्याय प्रगट हो तो भी स्वभाव था सो प्रगट हुआ इसमें नया क्या है? इसलिए ज्ञानी को अभिमान नहीं होता। आत्मा में जो पंच महाव्रत, संयम, तप आदि के परिणाम होते हैं सो शुभ राग है, आश्रव है, उसे ही संवर मानना तो भ्रम है। सम्यग्दृष्टि को भी जितना रागांश है, वह धर्म नहीं है। राग रहित व सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्र की एकता रूप भाव ही धर्म है। ___ मैं ज्ञायक हूँ ऐसे स्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान पूर्वक जितना वीतराग भाव हुआ, उतना संवर धर्म है तथा उसी समय जो रागांश है सो आश्रव है। धर्मी जीव इन दोनों को भिन्न-भिन्न पहिचानता है,प्रथम व्यवहार व बाद में निश्चय ऐसा नहीं है। जिनके अन्तर में भेदज्ञान रूपी कला जागी है, चैतन्य के आनन्द का वेदन हुआ है, ऐसे ज्ञानी धर्मात्मा सहज वैरागी हैं। अभी जिसको अन्तर में आत्मभान ही न हो, तत्व सम्बन्धी कुछ भी विवेक न हो, वह वैरागी बनकर ध्यान में बैठकर अपने को साधु माने तो वह द्रव्यलिंगी है। द्रव्यलिंगी विषय सेवन छोड़कर, तपश्चरण करे तो भी वह संसारी है। द्रव्यलिंगी दिगम्बर साधु - नौ कोटि बाढ़ ब्रहमचर्य पालन करे, मन्द कषाय करे परन्तु आत्मा का भान न होने से मिथ्यात्व सहित प्रथम गुणस्थान वर्ती है। मुनि को छठे गुणस्थान में शरीर के अतिरिक्त किसी भी संयोग
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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