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________________ [मालारोहण जी राजा श्रेणिक फिर प्रश्न करता है कि प्रभो ! क्या इस साधक दशा में यह रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला निरन्तर वर्तती है। यह इतने भव्य जीव श्रावक बैठे हैं, यह तो सब अपने आत्म स्वभाव की अनुभूति करते हुये, आनन्द - परमानन्द में रहते हैं, रहेंगें, या अभी और कसर बाकी है ? इसका समाधान भगवान द्वारा अगली गाथा में किया गया हैगाथा - २६ संमिक्त सुद्धं मिथ्या विरक्तं, लाजं भयं गारव जेवि तिक्तं । ते माल दिस्टं ह्रिदै कंठ रूलितं, मुक्तस्य गामी जिनदेव कथितं ।। शब्दार्थ - (संमिक्त सुद्धं) जो सम्यक्त्व से शुद्ध हैं ( मिथ्या विरक्तं ) मिथ्यात्व से छूट गये हैं (लाजं भयं गारव) लाज, भय और गारव (जेवि) जिसका ( तिक्तं) छूट गया है (ते माल दिस्टं) वह इस मालिका को देखते हैं (ह्रिदै कंठ रूलितं) हृदय कंठ पर झुलती हुई (मुक्तस्य गामी) वह मोक्षगामी हैं, मुक्ति के अधिकारी हैं (जिनदेव कथितं) ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है, निरूपण किया है । विशेषार्थ - जो आत्मानुभवी जीव सम्यक्त्व से शुद्ध हैं, मिथ्यात्व से छूट गये हैं तथा लोक लाज, भय, गारव (अहंकार) आदि दोषों को त्याग कर वीतरागी साधु पद धारण करते हैं, वे इस रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखते हैं। अपने चैतन्य स्वरूप का स्व संवेदन में प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं तथा अपने ध्रुव धाम शुद्ध स्वभाव में लीन होकर ज्ञानी मुक्ति को प्राप्त करते हैं। यह श्री जिनेन्द्र परमात्मा के वचन हैं, ऐसा उन्होंने कहा है कि हे राजा श्रेणिक ! यहाँ जो इतने श्रावक बैठे हैं, इनमें जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिन्हें निज शुद्धात्मानुभूति हो गई है और जो मिथ्यात्व से परिपूर्ण छूट गये हैं तथा अब लाज, भय, गारव को त्याग कर जो वीतरागी साधु बनेंगे क्योंकि अभी इन्हें लोक लाज भय लगा है, अभी इन्हें समाज सम्प्रदाय पद आदि का गारव, अहंकार है। तभी तो देखो किस दशा में बैठे हैं? यह अभी लाज, भय, गारव सहित हैं जब यह सब छूटेंगे, निर्ग्रन्थ दिगम्बर १९९ ] गाथा क्रं. २६ ] [ २०० वीतरागी साधु बनेंगे, तब रत्नत्रय मालिका से सुशोभित होंगे और शुद्धोपयोग की साधना कर मोक्ष पद प्राप्त करेंगे अर्थात् अरिहन्त सिद्ध परमात्मा बनेंगे । स्वभाव सन्मुख होने पर समकिती को (दृष्टि अपेक्षा) कषाय रहित परिणति होती है, छठे गुणस्थान में अकषाय परिणमन रहता है परन्तु शुद्धोपयोग नहीं होता, चौथे पांचवे गुणस्थान में शुद्धाशुद्ध परिणति रहती है, स्वरूप में लीन होने पर बुद्धि पूर्वक राग का अभाव होना ही शुद्धोपयोग है और यह सातवें गुणस्थान से शुरू होकर बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होता है, तब अनन्त चतुष्टय रूप केवलज्ञान अरिहन्त सर्वज्ञ पद प्रगट होता है। प्रश्न- लाज, भय, गारव का स्वरूप क्या है ? समाधान - लाज, भय - शरम, संकोच, मर्यादा अपने सत्स्वरूप को छिपाना लाज है। जब तक संसार की अपेक्षा, दूसरों का महत्व, अस्तित्व मान्यता रहती है, तब तक यह लोक लाज रहती है। सामने पर की सत्ता अस्तित्व मानना ही लाज, भय का कारण है, अन्तर की संकोच वृत्ति, अपने स्वरूप का पूर्ण स्वाभिमान, बहुमान न होने पर यह लाज रहती है इसीलिए यह आवरण वस्त्रादि लादे रहते हैं, मर्यादा में बंधे रहते हैं, जो इन सबको छोड़ देता है, वह निर्बन्ध, निर्ग्रन्थ होता है। गारव - अहंकार, पद, सत्ता, सामाजिक अधिकार का गौरव रखना यह गारव है, राग भाव का अंश भी विद्यमान रहना गारव है। यह गारव छूटने पर ही वीतरागता आती है। गारव का मतलब, लोभ, वजन, जिम्मेदारी, बड़प्पन का भान रहना, यह सब छूटने पर ही निरहंकारी आकिंचन पना, वीतरागता होती है । प्रश्न - अगर यह लाज भय, गारव न रहेगा तो संसार समाज की मर्यादा व्यवहार कैसे चलेगा, फिर इसका क्या होगा ? समाधान - जिन्हें संसार समाज की मर्यादा रखना है, व्यवहार चलाना है, वह तो अभी मिथ्यात्व के गहरे अन्धकार में डूबे हैं, वहाँ आत्मा परमात्मा, मुक्ति का तो काम ही नहीं है जिन्होंने अभी सिद्धान्त को नहीं समझा, वस्तु स्वरूप को नहीं जाना, उनके लिए तो यह संसार और समाज है ही, इसे कौन छुड़ाता है ? यह तो उनकी बात चल रही है जो इस रत्नत्रय
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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