SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९५ ] [मालारोहण जी इन आशा, भय, स्नेह, लोभ का त्याग होने पर परिवार आदि से मोह भाव छूटने पर जब संयम भाव आता है, तब अपने स्वरूप की सुरत रहती है और वह साधक अपने स्वभाव की साधना करता हुआ आनन्द, परमानन्द में रहता है। प्रश्न - प्रभु! मैं इतना सुन समझ रहा हूँ, आपके आशीर्वाद से क्षायिक सम्यक्त्व भी हो गया, तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हो गया, पर मेरे अभी तक संयम भाव नहीं हो रहा, इसका क्या कारण है ? समाधान - हे राजा श्रेणिक ! नरक आयु का बंध सत्ता में पड़ा है। सम्यक्त्व होने के पूर्व, यशोधर मुनिराज के गले में सर्प डालने से नरक आयु का बंध हो गया है इसलिए संयम भाव नहीं हो रहे क्योंकि सम्यग्दर्शन से पूर्व जिसकी खोटी आयु का बंध हो जाता है फिर उसे संयम के भाव या संयम नहीं हो सकता। संयम का भाव, संयम तो देव आयु के बंधन का कारण है और यदि सम्यग्दर्शन के पूर्व आयु बंध न हुआ हो, तो उसे नियम से संयम के भाव होते हैं, जीवन में संयम आता है, और वह देवगति ही जाता है। इसलिये हे राजा श्रेणिक ! तुम्हें यह रत्नत्रय मालिका अपने हृदय कंठ पर झुलती नहीं दिखती अर्थात् हमेशा अपना स्मरण ध्यान नहीं रहता इसीलिए हमेशा आनन्द - परमानन्द में नहीं रहते। जो जीव, सम्यक्त्वी संयमी होते हैं, पंचम गुणस्थानवर्ती, जिनकी शल्य, आशा, भय, लोभ, स्नेह छूट जाते हैं, उन्हें यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला हृदय कंठ पर झुलती हुई दिखने लगती है। वह अपने स्वरूप की साधना करते हुये, अपने आत्म गुणों का विकास कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। सम्यग्दर्शन की महिमा बड़ी अपूर्व है, सम्यग्दर्शन में पूर्ण परमात्मा प्रतीति में आ जाता है, उसके महत्व का क्या कहना है। आत्म अनुभव के बिना सब कुछ शून्य है। लाख कषाय की मंदता करो, या लाख शास्त्र पढ़ो, किन्तु अनुभव बिना सब व्यर्थ है। सम्यग्दृष्टि भय से, आशा से, स्नेह से अथवा लोभ से, कुदेव, अदेव, कुशास्त्र तथा कुलिंग वेषधारी को प्रणाम अथवा विनय नहीं करता । सम्यग्दृष्टि जीव अपने को त्रिकाली आत्मा हूँ, मैं ध्रुव हूँ, सिद्ध हूँ, ऐसा ही अनुभव करते हैं पर अभी चौथे गुणस्थान में उपादेय रूप शुद्ध भाव अल्प गाथा क्रं. २५] [ १९६ हैं, वह भाव पाँचवे, छठे गुणस्थान में विकसित होता जाता है और हेय रूप विकार भाव चौथे गुणस्थान में मंद होता जाता है। जैसे-जैसे शुद्धता बढ़ती है, वैसे-वैसे गुणस्थान क्रम भी आगे बढ़ता जाता है, गुणस्थान अनुसार स्व ज्ञेय को ग्रहण करने की शक्ति भी विकसित होती जाती है। प्रश्न - प्रभो ! जब सम्यग्दर्शन की इतनी महिमा है, फिर यह अवरोधक क्यों लगे हैं ? इसका समाधान भगवान की दिव्य ध्वनि में आता हैइसी संदर्भ में यह गाथा सूत्र है गाथा - २५ जिनस्य उक्तं जे सुद्ध दिस्टी, संमिक्तधारी बहुगुन समिद्धं । ते माल दिस्टं ह्रिदै कंठ रूलितं, मुक्ति प्रवेसं कथितं जिनेन्द्रं ॥ शब्दार्थ - (जिनस्य उक्तं ) जिनेन्द्र परमात्मा, भगवान महावीर ने कहा कि (जे सुद्ध दिस्टी) जो शुद्ध दृष्टि हैं ( संमिक्तधारी) सम्यक्त्व के धारी (बहुगुन समिद्धं) बहुत गुणों से समृद्ध हैं (ते माल दिस्टं) वह इस रत्नत्रय मालिका को देखते हैं (हिदे कंठ रूलितं) अपने हृदय कंठ में झुलती हुई (मुक्ति प्रवेसं) मुक्ति में प्रवेश करते हैं अर्थात् मुक्ति मार्ग में आगे बढ़ते हैं, (कथितं जिनेन्द्र ) जिनेन्द्र परमात्मा ने निरूपण किया है। विशेषार्थ - भगवान महावीर ने कहा कि जो शुद्ध दृष्टि अपने त्रिकाली ध्रुव स्वभाव की साधना करते हैं, जो सम्यक्त्व के धारी बहुत गुणों से समृद्ध वान हैं अर्थात् अहिंसा उत्तम क्षमादि गुण प्रगट हो गये हैं- जिनकी पात्रता बढ़ गई, अर्थात् पंचम आदि गुणस्थानों में संयम, तप मय जीवन बनाते हुये, निज स्वभाव की साधना आराधना में रत रहते हैं, वे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी, ज्ञान मई ज्ञान गुणमाला निज शुद्धात्म स्वरूप को अपने हृदय कंठ अर्थात् स्व संवेदन में झुलती हुई देखते, प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं और निज स्वभाव में लीन होकर मुक्ति में प्रवेश करते हैं अर्थात् मुक्ति मार्ग में आगे बढ़ते हैं, ऐसा केवलज्ञानी जिनेन्द्र परमात्मा की दिव्य ध्वनि में आया, निरूपण किया । हे राजा श्रेणिक ! सम्यग्दर्शन की तो अपूर्व महिमा है, यह तो मुक्ति मार्ग का प्रथम सोपान है, पर अभी संसार में कर्म संयोग दशा में जो आवरण
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy