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________________ श्री कमलबत्तीसी जी तो स्वयं अपने को है, इसके बिना जन्म-मरण का अन्त आने वाला नहीं है। जब यह आत्मा स्वयं रागादि विकारी भावों से भिन्न होकर अपने में एकाग्र होता है तब केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान ज्योति उदित होती है। और दर्शन, ज्ञान मय स्वभाव में अस्तित्व रूप जो आत्म तत्व है, उसमें एकत्व गत रूप से वर्तित हो, तभी वह आत्मा स्वसमय में प्रतिष्ठित होता है। प्रभु को रागादि विकारी भावों से सम्बन्ध वाला कहना ही बड़े खेद की बात है। रागादि से एकता तोड़कर, कर्मादि को जीतकर स्वभाव में एकता करे, तो सच्चा जैन (जिन) कहलाये । शाश्वत लक्षण युक्त स्वभाव के साथ कृत्रिम भाव को जोड़ना, उन्हें अपना मानना, भयभीत भ्रमित होना, यह तो बड़े दुःख रूप खेद की बात है। पवित्र वस्तु, अपवित्र रूप से परिणमित हो तो वह उसकी शोभा नहीं हैं। वस्तु, अकषाय स्वरूप है, उसमें मिथ्यात्वादि दोष नहीं हैं। विषय-कषाय कुछ हैं ही नहीं। उसका अकषाय भाव रूप परिणमित होना, वही उसकी शोभा है। चैतन्य का जो त्रिकाली स्वरूप है, उसका विचार करें, तो एक रूपता ही शोभनीय है। सत् शाश्वत ज्ञान और आनन्द स्वरूप भगवान एक रूप ज्ञान भाव में रहे वही उसकी शोभा है। आत्मा, रागादि विकल्प रहित निर्विकल्प स्वरूप है अतः निर्विकल्प स्वरूप की श्रद्धा ज्ञान चारित्र मय एक रूपता होने पर यह सब विषय कषाय, कर्मादि गल जाते हैं, क्षय हो जाते हैं। प्रश्न- हम इसके लिये बहुत जोर लगा रहे हैं, पूरा पुरुषार्थ कर रहे हैं, इसके बाद भी यह सब होते हैं, इसका क्या कारण है ? समाधान जैसे कोई तैरना सीखना चाहता है और घर में अच्छे गद्दे तकिये लगाकर हाथ-पैर पटकता है, क्या वह तैरना सीख जायेगा ? जैसे जिसके चारों तरफ आग जल रही हो, वह बीच में बैठा हुआ चाहे कि अच्छी शान्त, शीतल, ठंडी हवा का आनन्द मिले, क्या मिल सकता है ? नहीं, इसी प्रकार हम कहाँ, किस स्थिति में किस भूमिका में बैठे हैं और इसमें अतीन्द्रिय आनन्द में रहना चाहें, तो क्या यह सम्भव है ? जब तक पूर्व बन्ध, कर्मोदय संयोग, निमित्तनैमित्तिक संबंध है तब तक उसी पात्रता, भूमिकानुसार ही सारा परिणमन चलेगा परन्तु ज्ञान मार्ग की यह विशेषता है कि इसके साधक को बड़ा आत्मबल, निर्भयता दृढ़ता होती है। वह फिर इन किन्हीं भी कर्मोदय, विभाव परिणामों को महत्व नहीं देता, परवाह नहीं करता, इनसे भ्रमित भयभीत नहीं होता, अच्छा बुरा नहीं लगता, अपने ज्ञान भाव में स्थिर रहता ६७ श्री कमलबत्तीसी जी है, इससे यह क्रमश: गलते-विलाते भूमिकानुसार क्षय होते जाते हैं। प्रश्न- यहाँ एक भ्रम पैदा होता है कि बाह्य में संयम-तप, व्रतादि धारण करने की बात करते हैं तो वहाँ पहले ज्ञान करने की बात बताई जाती है, यहाँ पात्रता भूमिका की बात बताई जा रही है, इसका सही समन्वय-समाधान क्या है ? समाधान- सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान होता है और सम्यक्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र होता है। जीव की पात्रता, पुरूषार्थ अनुसार सम्यक्चारित्र स्वयमेव होता है, करना नहीं पड़ता। जैसे-बीज बोने के बाद उसमें अंकुर, पत्ती, फल-फूल अपने आप ही लगते हैं, लगाना नहीं पड़ते। इसी प्रकार इस ज्ञान मार्ग में सम्यदृष्टि ज्ञानी को सम्यक्चारित्र स्वयमेव होता है, न होवे तो उसकी मुक्ति ही नहीं हो सकती। अब इसमें कुछ बातें हैं, जो ध्यान में रखना आवश्यक हैं। (१) राग पूर्वक या कर्ता बुद्धि से कोई भी व्रत-संयम तपादि बंध के कारण हैं। जहाँ धारण करने का भाव है, वह राग भाव है, ज्ञानी को यह सब सहज में होते हैं। जैसे-जैसे वह अपनी अनुभूति में डूबता है, वैसे-वैसे ही सब पाप, विषय-कषाय अपने आप छूटते जाते हैं, इसी का नाम व्रत-संयम-तप है और यह न हों ऐसा होता नहीं है। (२) सम्यकदृष्टि ज्ञानी को १. कुछ भी करने का राग, २. मरने का भय, ३. भोगने की इच्छा नहीं होती, वह नि:शंकितादि अंग पूर्वक निर्भय, निश्चिंत, निर्द्वद होता है। जहाँ कर्मोदय पर्याय से भयभीतपना है, वहाँ अभी अज्ञान है। अभी सम्यक्ज्ञान शुद्ध नहीं हुआ। (३) पूर्व कर्म बंध की सत्ता स्थिति अनुभाग क्या है ? इसके ज्ञान पूर्वक ही वह आगे बढ़ता है। कोई संसारी कामना - वासना, पूजादि लाभ का इच्छुक नहीं है अत: अपनी पात्रतानुसार ही आगे बढ़ता है। सम्यक्चारित्र में पूर्व कर्म बंधोदय और जीव के पुरूषार्थ का ही खेल है और इसमें पांच समवाय सहकारी हैं। (४) जिसे चारों अनुयोग, पांच समवाय, दोनों नय का यथार्थ ज्ञान होता है, वह ज्ञानी है और वह समता-शांति में ज्ञायक रहता है, तत् समय की योग्यतानुसार सारा परिणमन चलता है, इससे न वह भयभीत है, न भ्रमित है, न कोई चाहना - कामना है, वह हर दशा में हर समय आनन्द में रहता है,
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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