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________________ श्री कमलबत्तीसी जी निजानन्द में लीन रहो। घर, परिवार, मोह-राग के संयोग में रहते निर्विकल्प निजानन्द में स्थायी नहीं रहा जा सकता। यहाँ तो पात्रता और पुरूषार्थ के अनुसार ही रहना पड़ता है, ज्ञानी को सब निर्णय होता है अत: वह शान्तसमता में ज्ञायक रहता है। आत्मा-स्पर्श, रस आदि गुणों से रहित और पुद्गल तथा अन्य चार अजीव द्रव्य एवं अनन्त जीवों से अत्यन्त भिन्न है। वर्तमान में अशुद्ध पर्याय से अज्ञान जनित, निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। अब इन सबसे भिन्न रहने का पुरूषार्थ, अपने इष्ट-परमइष्ट ध्रुव स्वभाव-शुद्धात्मा का आलम्बन आश्रय ही है। जितना अपने ममल स्वभाव में रहने का पुरूषार्थ काम करता है, उतने ही रागादि विकल्पों से भिन्न रहा जाता है। मन हमारे अन्तर की कमजोरी को जानता है, हमारे अन्तर में जिस तरफ का राग-रूचि-चाह-लगाव-मोहमाया का सद्भाव होता है, वह उसी में घुमाता है, बार-बार सामने आकर बताता है। सम्यक्दृष्टि का ज्ञान अति सूक्ष्म होता जाता है, वह राग और स्वभाव के बीच की संधि में ज्ञान पर्याय का प्रवेश होते, मन के बीच आते ही प्रथम बुद्धिगम्य भिन्नता करता है, अन्तर शोधन करना ही सच्ची साधना है। इसका एक ही उपाय है कि पर्याय से भी भिन्न जो अपना ध्रुव स्वभाव है, उसका निरन्तर लक्ष्य बना रहे, उसी पर दृष्टि रहे तो फिर यह सब आने-जाने वाले, मन आदि भाव अपने आप विला जाते हैं। पर से अपनी पकड़ छूट जाये, उदासीनता, निरपेक्ष दशा हो जाये, निस्पृह, आकिंचन, वीतरागी होने पर यह कुछ होता ही नहीं है। वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय करते हुये, अपने ज्ञान स्वभाव में सजग रहना ही ज्ञान मार्ग की साधना है। प्रश्न-चारित्र मोहनीय के साथ यह दर्शन मोहनीय की सम्यक् प्रकृति-वेदक सम्यक्त्व के रूप में चल-विचल-भयभीत-कम्पित करती है, इसके लिये क्या उपाय किया जाये तथा कर्मोदय से कैसे बचा जाये? समाधान-दर्शन मोहनीय, चारित्र मोहनीय-यह सब मोहनीय कर्म की सत्ता है। यह जब तक अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान रूप रहती है, तब तक बाधक बनती है। संज्वलन कषाय रूप होने पर जीव का तीव्र पुरुषार्थ काम करने लगता है। कर्मोदय सत्ता पूर्व अज्ञान जनित दशा का परिणाम है, परन्तु सद्गुरू कहते हैं कि - श्री कमलबत्तीसी जी कम्म सहावं विपन, उत्पत्ति पिपिय दिस्टि सभावं। चेयन रूप संजुत्तं, गलियं विलियं ति कम्म बंधानं ॥ ॥ कमलबत्तीसी-६ ॥ इसी ग्रन्थ की छठवीं गाथा में पूर्व में सब निर्णय आ गया है। अब तो मन में दबी पड़ी अतृप्त कामनाओं का जब तक परिमार्जन, सफाई,शुद्धि नहीं होती, तब तक वह पेरती हैं, सत्ता में पड़े हुये निधत्ति, निकाचित कर्म जब तक निकलते नहीं तब तक आगे नहीं बढ़ सकते। कर्मों को (१) ज्ञान पूर्वक शमन करना (२) शुद्धोपयोग द्वारा क्षय करना (३) भोग कर निर्जरित करने पर ही छुटकारा होता है। शान पूर्वक शमन करना-कों का गलना है। भोग कर निर्जरित करना-कमों का विलाना है। और क्षय होना मिट जाना है, इसमें पात्रता अनुसार ही पुरूषार्थ काम करता है। जब तक मन पसरता है, तब तक सारे अशुभ भाव ही होते हैं । वस्तु स्वरूप का ज्ञान करने पर मन शान्त होता है। "सत्ता एक शून्य विन्द" की स्थिति होने पर मन शून्य हो जाता है। मैं ध्रुव तत्व-पूर्ण ब्रह्म परमात्मा, शुद्ध प्रदेशी, सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ और यह सामने शुद्ध पुद्गल परमाणु रूप पुद्गल का विस्तार है। ऐसा ज्ञान पूर्वक निर्णय करना और स्वरूप में स्थित होने पर सब शून्य हो जाता है। वेदक सम्यक्त्व-अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान कषाय, राग का उदय यह सब मोहनीय की सत्ता है। अपनी सत्ता शक्ति जाग्रत करो,तो कर्म सत्ता सब क्षय हो जाती है। जब तक कंचन, कामिनी, कीर्ति रूप माया का आकर्षण रहेगा, तब तक ब्रह्मस्वरूप में लीन नहीं हो सकते। माया के चक्कर से छूटने पर ही आत्मा-परमात्मा होता है। ___ कर्मों की सत्ता शक्ति मानना ही अपनी कमजोरी है। अपनी स्व सत्ता शक्ति का जाग्रत होना, अपने स्व-स्वरूप का स्वाभिमान-बहुमान होना ही कर्मों को जीतना है। प्रश्न-आत्मा ज्ञानानन्द स्वभावी परमब्रह्म परमात्मा है, पर वह ऐसे अपने स्वरूप में रहती क्यों नहीं है? समाधान- आत्मा-अनादि से अपने स्वरूप को भूला, अज्ञान के कारण शरीरादि पर में (१) एकत्व (२) अपनत्व (३) कर्तृत्व (४) चाह (५) लगाव
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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