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________________ श्री कमलबत्तीसी जी यहाँ यह अभिप्राय है कि वास्तव में सम्पूर्ण क्रियायें कर्मोदय जन्य पुद्गल में ही हो रही हैं। उनमें से कुछ क्रियाओं के साथ अपना सम्बन्ध मानना भूल है, इस भूल के मिटने पर ही आत्मा का वास्तविक रूप समझ में आता है। जो जानता है, वह कर्ता नहीं है। जो कर्ता है, वह जानता नहीं है। करना ही निश्चय से राग है। राग को अज्ञान रूप अध्यवसान कहते हैं। यह अज्ञान भाव नियम से मिथ्यादृष्टि को होता है और यही अज्ञान भाव बंध का कारण बनता है। भगवान जिनेन्द्र ने पग-पग पर ग्रंथों में अध्यवसान ही त्याग करने योग्य कहा है। अध्यवसान पर के आश्रय से होता है, स्वाश्रय से नहीं होता; इसलिये सद्गुरू कहते हैं,स्वाश्रय करो, पराश्रय छोड़ो। जितना भी संसार का व्यवहार है, वह सब पराश्रय से होता है। पराश्रय के त्याग का उपदेश ही परमार्थ का उपदेश है। अपनी निज महिमा से सर्वोत्कृष्ट शुद्धात्मा में ही लीन रहना मुक्ति मार्ग की साधना है। अनिष्टकारक पंचेन्द्रियों के विषय तथा उनके साधन क्रोधादि कषाय तथा उनके साधनों की भयंकरता, अनिष्टकारिता भाषित होने पर बंध से बचा जा सकता है। बंध से बचना ही मुक्ति मार्ग की साधना है,यही सम्यक्चारित्र है। जगत में कर्म की वर्गणायें भरी हैं,वे बंध कराती हैं,ऐसा नहीं है। जीव के हलन-चलन कराने वाले मन-वचन-काय की क्रियायें जीव को बंध नहीं कराती । नाना प्रकार के बाहा साधन इन्द्रियों आदि भी जीव को बंध नहीं कराते । सचेतन-अचेतन पदार्थों का घात भी कर्म बंधन नहीं कराता किन्तु जीव के ज्ञानोपयोग की भूमिका जब रागादि विकारी भावों के साथ एकता को प्राप्त होती है. तब यही एक मात्र अवस्था प्राणियों के लिये बंध का कारण होती है। बंध का कारण पर पदार्थ नहीं होता, स्वापराध ही होता है अत: जब जीव का उपयोग रागादि विकारों से विकृत होता है, तब वे ही अशुद्ध उपयोग स्थित रागादि परिणाम जीव को कर्म बंधन के कारण होते हैं,ये ही मूल हेतु है। रागादि रहित विरागी के कर्म बंध नहीं होता। लोक कार्माण वर्गणा से भरा हुआ हो, जो योग प्रदेश चलनात्मक क्रियायें भी हों तथा इन सबके साथ, श्री कमलबत्तीसी जी पाँचों इन्द्रियों मन तथा इनके साधन स्वरूप अन्य पदार्थ रूप करण (साधन) भी हों तथा चेतन-अचेतन का घातभी होतथापि सम्यग्दृष्टि जीव यदि उपयोग की भूमिका में रागादि रूप परिणमन नहीं करता और मात्र अपने ज्ञान स्वरूप में रहता है, तत् रूप ही परिणमन करता है, तो किसी भी प्रकार से उस सम्यकदृष्टि जीव को बंध नहीं होता, यह सुनिश्चित है। यही साधना है कि अपने उपयोग को बाहर पर पर्याय में न जाने दिया जाये। निरन्तर अपने स्वरूप का स्मरण-ज्ञान-ध्यान किया जावे कि मैं आत्मा, शुद्धात्मा, ममल स्वभावी परमात्मा हूँ। ममल स्वभाव में रहने से अनन्तानन्त कर्म क्षय होते हैं और यह रूपी पदार्थ पुद्गलादि, शरीर संयोग कर्म बन्ध छूटने पर केवलज्ञान मयी ममल स्वभावी परमात्मा हो जाते हैं। यही साधना है जिसका निरन्तर आराधन किया जाये। मैं ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ, मैं ध्रुव तत्व शुद्धातम हूँ। मैं अशरीरी अविकारी हूँ, मैं अनन्त चतुष्टय धारी हूँ। मैं सहजानन्द बिहारी हूँ, मैं शिव सत्ता अधिकारी हूँ। मैं परम ब्रह्म परमातम हूँ, मैं धुव तत्व शुद्धातम हूँ.... मैं ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा, मैं ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हूँ। मैं अलख निरंजन परम तत्व, मैं ममलह ममल स्वभावी हूँ। मैं परम तत्व परमातम हूँ, मैं धुव तत्व शुद्धातम हूँ.... मैं निरावरण चैतन्य ज्योति, मैं शाश्वत सिद्ध स्वरूपी हूँ। मैं एक अखंड अभेद शुद्ध, मैं केवलज्ञान अरूपी हूँ | मैं ज्ञानानन्द सिद्धातम हूँ, मैं धुव तत्व शुद्धातम हूँ.... बस, सत्ता एक शून्य विन्द मैं ही मैं हूँ। पर का जगत का अस्तित्व मिटा देना, अपने ममल स्वभाव धुवधाम में लीन रहना, इसी से अनन्तानन्त कर्मक्षय होते हैं। यह शरीरादि संयोग छूटते हैं और आत्मा - शुद्धात्मा, परमात्मा हो जाता है। प्रश्न-यह तो परम आनन्द की बात है,पर इस शरीरादि कर्म संयोग में रहते हुए ऐसा कहना सहज है, पर ऐसा रहना, स्वीकारता में आना तो कठिन है, क्या इससे स्वच्छंदता न होगी? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं -
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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