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________________ श्री कमलबत्तीसी जी कर्मोदय परिणामों में, रागादि भावों में, भ्रमना, चकराना, उन्हें अच्छाबुरा मानना यही अज्ञान बंध का कारण है, इसलिए भेदज्ञान पूर्वक तत्व का निर्णय करके अपने ममल स्वभाव में रहो। अपने शुद्ध चैतन्य ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा को देखो, उसी की साधना अभ्यास करो, तो फिर यह कुछ होगा ही नहीं। ज्ञानी होने के बाद सम्यक्चारित्र का यही पुरुषार्थ है। अपनी शुद्ध दृष्टि रखो, राग भाव छोड़ो, हमेशा अपने त्रिकाली ध्रुव स्वभाव निरावरण चैतन्य स्वरूपमय रहो। प्रश्न-हम पूरा पुरुषार्थ करते , जोर लगाते हैं, पर यह वेदक सम्यक्त्व वर्शन मोहनीय के भाव अप्रत्याख्यानावरण कषाय और कौवय के भाव स्थिर शान्त नहीं होने देते, इनके लिए क्या करें? इसके समाधान में सद्गुरू श्री जिन तारण स्वामी आगे गाथा कहते हैं गाथा -१६ जिन वयनं च सहाव, जिनिय मिथ्यात कसाय कम्मान । अप्पा सुद्धप्पानं, परमप्पा ममल दर्सए सुद्धं ॥ शब्दार्थ- (जिन वयनं) जिनवाणी, जिनेन्द्र के वचनों का (च) और (सहावं) स्वरूप समझकर, स्वीकार करना, श्रद्धा करना (जिनियं) जीतोगे (मिथ्यात) मिथ्यात्व, दर्शन मोहनीय (कसाय) कषाय (कम्मान) कर्मों को, कर्मोदय को, कर्म मलों को (अप्पा) आत्मा (सुद्धप्पानं) शुद्धात्मा है (परमप्पा) परमात्मा (ममल) ममल स्वभावी (दर्सए) देखो, देखने से (सुद्धं) शुद्ध होते हैं। विशेषार्थ-जिनवाणी में जिनेन्द्र परमात्मा ने वस्तु का यथार्थ स्वरूप कहा है कि निज स्वभाव समस्त विकारों से रहित शुद्ध ज्ञानमयी है इसे स्वीकार करो।मैं आत्मा-शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। ऐसी आत्मानुभूति ही मुक्ति का कारण है। हे साधक ! निज स्वभाव के आश्रय से ही मिथ्यात्व कर्म और कषायों को जीतोगे तथा परमानन्द मयी परम सुख प्राप्त करोगे इसलिए समस्त कर्म मलों से रहित अपने शुद्ध समयसार स्वरूप ममल स्वभाव को देखो, इसी से पर्याय शुद्ध होती है। आत्मा को आत्मा के द्वारा ग्रहण कर जो निश्चल होकर आत्मा का अनुभव करता है कि मैं आत्मा - शुद्धात्मा-परमात्मा हूँ वही ममल स्वभाव का दर्शन करता हुआ, कर्म की निर्जरा करता है। जब आत्मा श्री कमलबत्तीसी जी अपने मूल स्वभाव, ममल स्वभाव को लक्ष्य में लेकर ग्रहण करता है तब सर्व ही पर भावों का त्याग हो जाता है, छूट जाते हैं। ज्ञानी, जो ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, ऐसे पर भाव, या पर द्रव्य को ग्रहण नहीं करता तथा जो अपने गुण का स्वभाव है जिनको सदा ग्रहण किये हुये है उनका कभी त्याग नहीं करता, किन्तु जो सर्व प्रकार से सर्व को जानता है, वही मैं अपने से आप अनुभव करने योग्य हैं। जिस आत्मीक स्वरूप से मैं अपनी आत्मा को आत्मा के भीतर, आत्मा के द्वारा, आत्म रूप ही अनुभव करता हूँ, वही मैं हूँ,न पुरूष हूँ,न स्त्री हूँ,न नपुंसक हूँ, न एक हूँ,न दो हूँ,न बहुत हूँ,जिस स्वरूप को न जानकर मैं अनादि काल से सो रहा था, अब उसको जानकर जाग उठा हूँ। वह मैं अतीन्द्रिय, नाम रहित केवल स्व संवेदन योग्य हूँ। ऐसा सत् श्रद्धान कर जो यथार्थ तत्व दृष्टि से अपने को ज्ञान स्वरूपी देखता है, वहीं सर्व रागादि क्षय हो जाते हैं। जितना कुछ प्रपंच या विकल्प पर द्रव्यों के सम्बन्ध में होता है, वह सब परभाव है। कर्मों के उदय से जो भाव कर्म रागादि शुभ या अशुभ होते हैं व नो कर्म शरीरादि होते हैं, वे सब पर भाव हैं। चौदह गुणस्थान व चौदह मार्गणाओं के भेद तब तक ही संभव हैं, जब कर्म सहित आत्मा को देखा जावे। अकेले मल रहित आत्मा में इनका कोई सम्बंध ही नहीं है। अपने आत्मा के सिवाय अन्य संसारी व सिद्ध आत्मायें तथा सर्व ही पुद्गल परमाणु या स्कन्ध रूप जगत तथा अन्य पर द्रव्य यह सब पर हैं। इनके सम्बंध से होने वाले भाव पर भाव हैं। मन के भीतर होने वाले मानसिक विकल्प भी परभाव हैं। आत्मा निर्विकल्प है, अभेद है, असंग है, निर्लेप है, ऐसा जिनवाणी में जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है इसका सत्श्रद्धान करो। भूत, भविष्य, वर्तमान, तीनों काल सम्बंधी सर्व कर्मों से व विकल्पों से आत्मा को न्यारा देखो। यद्यपि आत्मा अनन्त गुण व पर्यायों का समुदाय है तो भी ध्यान के समय उसे गुण - गुणी भेदों का विचार बन्द कर देना चाहिये। बाह्य निमित्त संयोग भी इसीलिये हटाये जाते हैं कि मन की चंचलता मिटे, मन क्षोभित न हो, मन में चिन्तायें घर न करें। निर्ग्रन्थ साधु को ही शुद्धोपयोग की भले प्रकार साधना होती है क्योंकि उसका मन परिग्रह की चिन्ता से व आरम्भ के झंझट से मुक्त है। बिल्कुल एकान्त सेवन, निरोग शरीर, शीत-उष्ण, दंश मशक की बाधा का संहनन, यह सब निमित्त कारण ध्यान में सहयोगी हैं।
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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