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________________ श्री कमलबत्तीसी जी समाधान- अज्ञानी जीव जब जड़ पर वस्तुओं को अपना मानता है, तब यह रागादि भाव होते हैं, शरीरादि संयोग नो कर्म कहलाते हैं। यह तीनों प्रकार के कर्मों का आश्रव, बंध जीव की मिथ्या दृष्टि और अज्ञान से होता है। इन तीनों कर्मों की निर्जरा जीव के सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान से होती है। सारे कर्म बंधनों का अभाव, सम्यक्दृष्टि जीव के अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप ध्रुव स्वभाव में लीन होने पर होता है। जिसको अपने सत्स्वरूप का पता नहीं है, ऐसे अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि जीव को निरन्तर कर्मों का बंध होता है। जो जीव सम्यकदृष्टि ज्ञानी होता है उसे कर्मों का बंध नहीं होता, कर्मों की निर्जरा होती है । पर वस्तु बंध का कारण नहीं है उसके प्रति जीव का मिथ्यात्व भावअज्ञान भाव-बंध का कारण है। विशेष- कर्मों का बंध कर्म में ही होता है तथा कर्मों से ही कर्मों का बंध होता है। जीव, चेतन लक्षण वाला अरूपी, अमूर्तिक द्रव्य है, पुद्गल रूपी मूर्तिक द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य और गुण से शुद्ध है। मात्र जीव और पुद्गल द्रव्य की पर्याय ही अशुद्ध है और इसमें ही एक दूसरे का निमित्तनैमित्तिक संबंध है। जिसको अंतर्दृष्टि व ज्ञान नहीं है वह इन कर्मों के चक्र में ही घूमता रहता है। परमात्म तत्व की ओर दृष्टि होते ही जीवात्मा, कर्म प्रकृति से विमुख हो जाता है। अर्थात् उसके पौद्गलिक जगत और कर्म प्रकृति के साथ माने हुए संबंध का विच्छेद हो जाता है और तब वह अपने परमात्म स्वरूप में अपनी वास्तविक अभिन्न स्थिति का अनुभव करता है। जिस प्रकार खेत में बोये हुए बीजों के अनुरूप उनके फल समय पर प्रगट होते हैं वैसे ही इस मानव शरीर से अहंकार पूर्वक किए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों के फल अन्य शरीरों में अथवा इसी शरीर में समय पर प्रगट होते हैं । शरीर, कर्म प्रकृति का कार्य है वह यहां प्राप्त होता है और यहीं नष्ट हो जाता है, जबकि जीव आत्मा, स्वयं इस जन्म से पहले भी था तथा जन्मजन्मान्तर में भी ज्यों का त्यों रहता है। शरीरादि से अपने को पृथक् जान लेने पर शरीरादि का कोई नाश नहीं होता एवं जानने वाले को कोई हानि नहीं होती क्योंकि दोनों पहले से ही २२ श्री कमलबत्तीसी जी पृथक-पृथक हैं। नाश होता है मात्र अज्ञान का, वस्तु स्थिति ज्यों की त्यों रहती है, ज्ञान केवल अज्ञान का विरोधी है न कि क्रिया के अनुष्ठान का । अज्ञान मिथ्यात्व के कारण शरीरादि के साथ एकता करके जीव दुःखों को भोग रहा था। ज्ञान हो जाने से अज्ञान के कार्यरूप सम्पूर्ण दु:ख मिट जाते हैं, कर्मों के बंधन छूट जाते हैं । सम्यदृष्टि ज्ञानी होने से सम्पूर्ण दुःख रूप कर्मों का अभाव होने लगता है, कोई शारीरिक और व्यवहारिक क्रियाओं का अभाव नहीं होता । धनादि की प्राप्ति में प्रारब्ध कर्म की प्रधानता है। जो वस्तु प्रारब्धानुसार मिलने वाली है, वह तो अवश्य मिलेगी ही, न मिलने वाली वस्तुएं नाना प्रकार के उद्योग और झूठ कपटादि के व्यवहार से भी नहीं मिलती। मनुष्य शरीर, आत्म कल्याण करने, परमात्म तत्व की प्राप्ति के लिए • मिला है। इस जन्म से पहले के जन्मों में मैंने जो शुभ-अशुभ कर्म किए थे, उन्हीं का फल अब भोगना पड़ रहा है और अभी जो शुभ-अशुभ कर्म कर रहा हूँ उसे भोगने के लिए इस शरीर का नाश होने के पश्चात् सत्ता रहेगी अर्थात् मैं स्वर्गादि चार गति, चौरासी लाख योनियों में कहीं न कहीं रहूंगा और इन कर्मों के फलों को भोगना पड़ेगा, ऐसा जानकर ज्ञानी इन कर्म फलों से छूटता है। भी यह नियम है कि प्रकृति के जिस कार्य, दृश्य वर्ग में राग होता है उसके विपरीत या विरोधी पदार्थों से द्वेष उत्पन्न हो जाता है। वैसे ही चैतन्य चिन्मय स्वरूप होने से जितने अंश में आत्मा का पर पर्याय संसार में राग होता है, उतना ही कर्म बंध होता है तथा उतने ही अंश में वह अपने चिन्मय स्वरूप से विमुख रहता है; अतः द्वेष के सर्वथा अभाव के लिए संसार में कहीं भी राग नहीं करना चाहिए जिसके पूर्ण राग- -द्वेष का अभाव हो जाता है वही पूर्ण वीतरागी परमात्मा होता है। कर्मबंधनों से सर्वथा मुक्त होना हो तो एक ही उद्देश्य हो - तत्व ज्ञान की प्राप्ति करना और इसके लिए सांसारिक संग्रह में भोग बुद्धि, सुख बुद्धि और रस बुद्धि नहीं होना तथा निषिद्ध आचरण, पाप अन्याय, झूठ कपट आदि का हृदय से त्याग कर देना, तभी अपने स्वरूप में तन्मयता होती है, जिससे समस्त कर्मबंध क्षय होते हैं। उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का होना भी जिस
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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