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________________ श्री कमलबत्तीसी जी ज्ञान बलेन इष्ट संजोओ, कैसी मति यह मारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं। अभय स्वस्थ मस्त होकर के, धुवधाम में डटे रहो। कमल ममल अनुभव में आ गये, निजानंद से कर्म दहो । अशुभ कर्म वरदान बने हैं, धर्म की महिमा सारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं। पर पर्याय पर दृष्टि न देना, तारण गुरू का कहना है। धर्म साधना मुक्ति मार्ग यह, ममल स्वभाव में रहना है ॥ निस्पृह वीतराग बन जाना, साधु पद तैयारी है । दृढ़ता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं ॥ ज्ञायक ज्ञान स्वभावी हो तुम, ज्ञानानंद में सदा रहो । सहजानंद की करो साधना, मुक्ति श्री की बांह गहो । कर्मोदय पर्याय न देखो, यह तो सब संसारी है। दृढता साहस और उत्साह ही, मोक्षमार्ग सहकारी हैं । श्री कमलबत्तीसी जी ४. सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान को, तत्व निर्णय से शुद्ध किया । संशय विभ्रम सभी विला गये, निर्विकल्प आनंद लिया । दर्शनोपयोग की शुद्धि ही, शुद्धोपयोग कराती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है | चक्षु अचक्षु दर्शन द्वारा, जो भी दिखाई देता है। कर्मोदय अशुद्ध पर्याय यह, चित्त को भरमा लेता है । माया का अस्तित्व मानना, ये ही चाह जगाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । धुवतत्व शुद्धातम हूं मैं, असत् अनृत पर्याय है । जब ऐसा दृढ निश्चय होवे, फिर चित्त न भरमाय है । निज सत्ता की दृढता होना, पर का बंध छुड़ाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ७. मन बुद्धि चित्त अहं यह, सभी अशद्ध पर्याय हैं । इनमें उलझा हुआ यह चेतन, जग में ही भरमाय है । दृष्टि शुद्ध अटल अपने में, फिर न धोखा खाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । ८. क्षायिक सम्यग्दर्शन करके, ज्ञानानंद में सदा रहो । कर्मोदय पर्याय न देखो, जड़ पुद्गल की कुछ न कहो ॥ पर का सब अस्तित्व मिटाना, केवलज्ञान कराती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । १. ९.शुद्ध दृष्टि ॐ ह्रीं श्रीं स्वरूप ही, यह आतम परमातम है । देव गुरू व धर्म आत्मा, स्वयं सिद्ध शुद्धातम है । निज स्वरूप का बोध हमें, मां जिनवाणी करवाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । दर्शन ज्ञान के भेद से चेतन, बाहर पकड़ में आता है। आगम की परिभाषा में, ये ही उपयोग कहाता है | दर्शन ज्ञान उपयोग की शुद्धि, भव से पार लगाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है । श्रद्धागुण निर्मल पर्याय में, सम्यग्दर्शन होता है । सप्त प्रकृति के क्षय होने से, मोह तिमिर को खोता है। निज स्वरूप अनुभूति होना, निश्चय नय की थाती है। धुवतत्व को देखने वाली, दृष्टि शुद्ध कहाती है ॥ १०. भाव विशुद्ध १. आतम सिद्ध स्वरूपी चेतन, ध्रुव तत्व अविनाशी है। पर्यायी परिणमन अशुद्ध से, बना यह जग का वासी है। कर्मोदय संयोग अनादि, पर में ही भरमाता है । पर का लक्ष्य-पक्ष न रहना, भाव विशुद्ध कहाता है । २. भाव विशुद्धि ही मुक्ति है, भाव मोक्ष कहलाती है। सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित यह, मोक्षपुरी ले जाती है |
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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