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________________ १३] [अध्यात्म अमृत जयमाल] ज्ञान समान न आन जगत में, मुक्ति का दातार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है । ६. श्री उपदेश शुद्ध सार जयमाल ७. ज्ञेय मात्र से भिन्न सदा है, ज्ञान मात्र चेतन सत्ता । ऐसा दृढ श्रद्धान हो अपना, कर्मों का कटता पत्ता ।। आनंद परमानंद बरसता, मचती जय-जयकार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है । १. मैं आतम शुद्धातम हूं, परमातम सिद्ध समान हूं। ज्ञायक ज्ञान स्वभावी चेतन, चिदानंद भगवान हूं। अपना भ्रम अज्ञान ही अब तक, बना हुआ संसार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥ शरीरादि से भिन्न सदा मैं, चेतना सत्ता वाला हूं। धन शरीर जड़ नाशवान, मैं एक अखंड निराला हूं। भेदज्ञान करके यह जाना, निज सत्ता स्वीकार है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ।। सद्गुरू तारण-तरण के द्वारा, वस्तु स्वरूप को जाना है। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करके, निज स्वरूप पहिचाना है । भूल स्वयं को भटक रहा था, अब भ्रमना बेकार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है । सब जीवों का सब द्रव्यों का, जब जैसा जो होना है। क्रमबद्ध सब ही निश्चित है, आना जाना खोना है । टाले से कुछ भी न टलता, देवादि जिनेंद्र लाचार हैं। भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ॥ खुद के मोह राग के कारण, कर्म बंध यह होते हैं। निज स्वभाव में लीन रहो तो, सारे कर्म यह खोते हैं। धर्म कर्म का मर्म अब जाना, जाना क्या हितकार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥ ४. १०. वस्तु स्वरूप सामने देखो, अब तो सत्पुरूषार्थ करो। निज स्वभाव की करो साधना, साधु पद महाव्रत धरो । ज्ञानानंद स्वभावी हो तुम, यही समय का सार है । भेदज्ञान तत्वनिर्णय करना, ज्ञान समुच्चय सार है ॥ जन्मे मरे बहुत दु:ख भोगे, चारों गति में भ्रमण किया। जिनको हमने अपना माना, किसी ने कुछ न साथ दिया । सबको तजकर निज को भजना.यही मक्ति का द्वार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है । (दोहा) भेदज्ञान तत्व निर्णय का, निश्चय हो श्रद्धान । मैं ध्रुव तत्व शुद्धात्मा, ज्ञायक ज्ञान प्रमाण ।। क्रमबद्ध सब परिणमन, असत् अनृत पर्याय । ज्ञान समुच्चय सार से, ज्ञानानंद मच जाय ॥ धन शरीर परिवार सभी यह, मोह-माया का जाल है। कर्ता बनकर मरना ही तो, खुद जी का जंजाल है । धूल का ढेर जगत यह सारा, सब ही तो निस्सार है। सिद्ध परम पद पाना ही, उपदेश शुद्ध का सार है ॥ ६. मति श्रुतज्ञान की शुद्धि करना, बुद्धि का यह काम है। अब संसार में नहीं रहना है, चलना निज ध्रुव धाम है ॥
SR No.009710
Book TitleAdhyatma Amrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages53
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size1 MB
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