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________________ प्रथमोन्मेष: २३ मान वस्तु का वर्णन होता है । अतः वहाँ अप्रस्तुतप्रशंसारूप अलङ्कार कवि के हृदय में पहले से ही स्फुरित होने लगता है ) । तथा सर्वप्रथम बिना तरासे हुए पाषाणखण्ड के समान प्रतीत होने वाली मणि के समान ही ( कवि ) प्रतिभा में प्रतीत होने वाली वस्तु चतुर कवि द्वारा विरचित चमत्कारपूर्ण ( वक्र ) वाक्य ( श्लोक ) में निबद्ध होकर निकष ( कसोटी ) पर चढ़े हुए मणि के सदृश मनोहर ढङ्ग से काव्यमर्मज्ञों को आनन्द प्रदान करने वाली काव्यरूपता को प्राप्त करती है। और यही कारण है एक ही वस्तु को लेकर रचे गये सावधान एव असावधान दो प्रकार के कवियों के दो ( भिन्न) वाक्य ( श्लोक ) इस प्रकार के महान् अन्तर को सिद्ध करता है यहाँ पर मानिनियों के मानभङ्ग कर देने के कारण उनके क्रोध से डरे हुए चन्द्रमा के उदयरूप वस्तु का वर्णन ही दो कवियों ने दो ढङ्ग से प्रस्तुत किया है । पहला श्लोक महाकवि भारवि के किरातार्जुनीय से उद्धृत किया गया है कि --- मानिनीजन विलोचनपातानुष्णबाष्पक लुषानभिगृहन् । मन्दमन्दमुदितः प्रययौ खं भीत भीत इव शीतमयूखः ॥ १३ ॥ ( पूर्व दिशा में ) उदित हुआ चन्द्रमा गरम-गरम आँसुओं से कलुषित हुए कामिनियों के कटाक्षपातों को सहन करता हुआ, मानों अत्यधिक भयभीत खा होकर धीरे-धीरे आकाश में पहुँच गया ॥ १३ ॥ क्रमाद्वित्रि प्रगतिपरिपाटीः प्रकटयन् कलाः स्वैरं स्वैरं नवकमल कन्दाङ्कुररुचः । पुरन्ध्रीणां प्रेयोविरह दहनोदी | पतदृशां कटाक्षेभ्यो विभ्यन्निभृत इव चन्द्रोऽभ्युदयते ॥ १४ ॥ ( तथा इसी चन्द्रोदय का वर्णन किसी कवि ने इस प्रकार से किया है ) - ( पूर्व दिशा में ) कमल की जड़ों के नये अङ्कुरों की कान्ति वाली ( अपनी ). कलाओं कों धीरे-धीरे क्रमशः एक, दो, तीन आदि की आनुपूर्वी को साथ प्रकट करता हुआ, प्रियतम के विरहानल से उद्दीप्त नेत्रोंवाली कुटुम्बिनियों के कटाक्षों से डरता हुआ, ( अतएव ) मानो अत्यन्त विनीत हुआ सा चन्द्रमा उदित हो रहा है ॥ १४ ॥ सहृदयसंवेद्यमिति एतयोरन्तरं तस्मात् स्थितमेतत्-नशब्दस्यैष काध्यत्वम्, नाप्यर्थस्येति । तदिदमुक्तम् तैरेव विचारणीयम् । रमणीयता विशिष्टस्य केवलस्य
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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