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________________ प्रथमोन्मेषः की उत्पादकता के साधर्म्य के कारण लक्षण से उपमारूपक आदि ( काव्य के अलङ्कारों के अर्थ ) में, भी अकङ्कारशब्द का प्रयोग होता है । और उसी प्रकार उसके सदृश होने के नाते गुण ( मार्ग) आदि के अर्थ में भी ( अलङ्कार शब्द का प्रयोग होता है ) और उसी प्रकार उनका प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ के विषय में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। शब्द और अर्थ दोनों का समान रूप से योग-क्षेम करने के कारण दोनों के स्थान पर एक व्यवहार होता है। जैसे गाय यह शब्द है और गाय यह अर्थ है। तो आशय यह है कि यह ग्रन्थ ( अर्थात् इस प्रकार अलङ्कारों के प्रति. पादन करने वाले ग्रन्थों का ( जातावेकवचनम् ) अलङ्कार कहा जायगा। उपमा-रूपक आदि प्रमेय समुदाय ( इस प्रकार के अलङ्कार ग्रन्थों का ) अभिधेय अर्थात् प्रतिपाद्य विषय है। तथा ऊपर कही गई ( अलौकिक विचित्रता) की सिद्धि इसका प्रयोजन है । टिप्पणी :-उपर्युक्त पंक्तियों मैं कुन्तक द्वारा प्रयुक्त 'ग्रन्थस्यास्य अलङ्कार इत्यभिधानम्' शब्दावली विद्वानों के भ्रम का मल है। इसी आधार पर इस ग्रन्थ का नाम 'काव्यालङ्कार' सिद्ध करने का प्रयास किया है जो समीचीन नहीं प्रतीत होता । क्योंकि यहां पर कुन्तक सभी अलङ्कार ग्रन्थों का प्रयोजनादि बता रहे हैं अतः वे कहते हैं कि काव्य के अलङ्कारों (उपमा दि) के प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों का अलङ्कार ( ग्रन्थ ) नाम होता है । इस बात को उन्होंने इसके पहले अलङ्कार शब्द का अर्थ बताते हुए 'तथैव च तदभिधायिनि ग्रन्थे' कह कर अत्यधिक स्पष्ट कर दिया है । साथ ही जैसा आचार्यों के बीच में प्रसिद्धि है कि 'वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्' इति कुन्तकः । इस कथन की पुष्टि इस ग्रन्थ का नाम 'काव्यालङ्कार' मान लेने से नहीं होती है । जब कि 'वक्रोक्तिजीवितम्' इस सज्ञा से 'तदधिकृत्य कृते ग्रन्थे' से (वक्रोक्तिरेव जीवितम् यस्य तत्) यह अर्थ स्पष्ट प्रतीत होता है। साथ ही जैसा कि प्रथम उन्मेष की समाप्ति पर प्रयुक्त इति श्रीराजानककुन्तकविरचिते वक्रोक्तिजीविते काव्यालङ्कारे प्रथम उन्मेषः' का 'वक्रोक्तिजीवित' नामक काव्य के अलङ्कार प्रत्य में ऐसा ही अर्थ सङ्गत प्रतीत होता है। यदि यह कहा जाय कि 'वक्रोक्ति है जीवित जिसका ऐसे 'काव्यालङ्कार' नामक ग्रन्थ में' यह अर्थ उपयुक्त होगा तो ठीक नहीं, क्योंकि अन्यत्र उन्मेषों की समाप्ति पर केवल 'इति श्रीराजानककुन्तकविरचिते वकोक्तिजीविते द्वितीय-तृतीय-उन्मेषः' प्राप्त होता है । वहाँ 'काव्यालङ्कारे' का प्रयोग नहीं मिलता है । अतः यहाँ पर 'ग्रन्थस्यास्य अलङ्कार इत्यभिधानम्' में 'जाता. वेकचनम्' ही मानना अधिक सङ्गत प्रतीत होता है ।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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