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________________ चतुर्षोन्मेषः तथा अन्यथा निर्वाह की गई रस सम्पत्ति की उपेक्षा से। इतिवृत्त का अर्थ है इतिहास, ( उसमें ) अन्यथा अर्थात् दूसरे ढङ्ग से वृत्त अर्थात् निर्वाह की गई जो रससम्पत्ति अर्थात् शृङ्गार आदि की छटा उसकी अपेक्षा अर्थात् उसके अनादर द्वारा, उसका परित्याग कर के ( जहाँ अन्य रम्य रस के द्वारा निर्वाह किया जाता है)। किसका ( निर्वाह )-उसी कथामूर्ति का अर्थात् उसी काब्य शरीर का (निर्वाह ) केसी ( कथामूर्ति का) मूल से ही उन्मीलित शोभा बाली (कथामूर्ति का ) आमूल अर्थात् प्रारम्भ से ही उन्मीलित की गई है जिसकी श्री अर्थात शन्द एवं मर्थ रचना की सम्पत्ति उस ( कथामति का निर्वाह )। किस लिए-विनेयों के आनन्द की निष्पत्ति के लिए अर्थात् प्रतिपाद्य राजा आदि के आनन्द को सम्पादित करने के लिए ( जहाँ उस कथामति का अन्य रस के द्वारा निर्वाह हो, उसे प्रबन्ध वक्रया कहते हैं ) । - प्रबन्धवक्रता के इस प्रकार के उदाहरण रूप में कुन्तक वेणीसंहार' तथा उत्तररामचरित' को उद्धृत करते हैं। ये दोनों नाटक क्रमशः 'महाभारत' एवं 'रामायण' पर आधारित हैं जिनमें कि प्रधान रस 'शान्त रस' है । जैसा कि कुन्तक कहते हैं'रामायणमहाभारतयोश्च शान्ताङ्गित्वं पूर्वसूरिभिरेव निरूपितम् ।' किन्तु इन दोनों नाटकों में इतिवृत्त कुछ दूसरे ढङ्ग से प्रस्तुत किया गया है, जिसमें क्रमशः वीर रस तथा 'शृङ्गार रस' अङ्गी रूप में वर्णित हैं। कुन्तक एक 'अन्तरश्लोक' उद्धृत कर इस विषय को समाप्त करते हैं किन्तु पाण्डुलिपि की भ्रष्टता के कारण डा० डे वह श्लोक उद्धृत नहीं कर सके । इसके अनन्तर कुन्तक प्रबन्धवक्रता के दूसरे भेद का निरूपण करते हैंत्रैलोक्याभिनवोल्लेखनायकोत्कर्षपोषिणा । इतिहासैकदेशेन प्रबन्धस्य समापनम् ॥ १८ ॥ तदुत्तरकथावर्तिविरसत्वजिहासया । कुर्वीत यत्र सुकविः सा विचित्रास्य वक्रता ॥ १९॥ जहाँ श्रेष्ठ कवि तीनों लोको में अपूर्व वर्णन के कारण नायक के उत्कर्ष को पुष्ट करने वाले इतिहास के एक अंश से, उसके बाद की कथा में विद्यमान नीरसता का परित्याग करने की इच्छा से, प्रबन्ध को समाप्त कर दे, वह इस (प्रबन्ध) की विचित्र वक्रता होती है ॥ १८-१९ ॥ सा विचित्रा विविधभङ्गीभ्राजिष्णुरस्य प्रबन्धस्य वक्रता वक्रभावो भवतीति सम्बन्धः। कुर्वीत यत्र सुकविः-कुर्वीत विदधीत यत्र यस्यां
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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