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________________ ४२९ वक्रोक्तिजीवितम् (इति) विस्मृतान्यकरणीयमात्मनः सचिवावलम्बितधुरं धराधिपम् । परिवृद्धरागमनुबन्धसेवया मृगया जहार चतुरेव कामिनी ।। २७ ।। इस प्रकार ( पूर्वोक्त ढङ्ग से मृगया से भिन्न राज्यसम्बन्धी ) अपने अन्य कार्यों को भूले हुए, एवं मन्त्रियों पर आश्रित राज्यभार वाले तथा निरन्तर सेवा के कारण ( अपने प्रति ) बढ़े हुए अनुराग वाले राजा ( दशरथ ) को विदग्ध रमणी के समान मृगया ने अपनी ओर आकृष्ट कर लिया ।। २७ ।। अथ जातु झरोप॑हीतवर्मा विपिने पार्श्वचरैरलक्ष्यमाणः । श्रमफेनमुवा तपस्विगाढां तमसां प्राप नदी तुरङ्गमेण ।। २८ ।। इसके अनन्तर कभी रुरु ( मृगविशेष ) के मार्ग को पकड़े हुए ( अर्थात् उसका पीछा किए हुए ) जङ्गल में साथ चलने वालों द्वारा न दिखाई पड़ने वाले राजा दशरथ, ( अत्यधिक वेगपूर्वक दौड़ने के ) परिश्रम के कारण मुंह से फेन गिराने वाले घोड़े से मुनियों द्वारा सेवन की जाने वाली तमसा ( नामक ) नदी को प्राप्त किया ॥ २८॥ शापोऽप्यदृष्टतनयाननपद्मशोभे - सानुग्रहो भगवता मयि पातितोऽयम् । कृष्यां दहन्नपि खल क्षितिमिन्धनेद्धो बीजप्ररोहजननी ज्वलनः करोति ।। २६ ॥ पुत्र के मुखकमल की शोभा को न देखनेवाले मुझ ( दशरथ ) के प्रति दिया गया आपका (पुत्र शोक से तुम भी मरोगे ) यह शाप भी उपकारयुक्त ही है । ( अर्थात् मेरे पुत्र नहीं है, अब आपके शाप को सफल करने के लिए मुझे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होगी । अतः यह आपका शाप मेरे लिए उपकारपूर्ण है । क्यों न हो ? ) काष्ठ से प्रज्वलित हुई आग खेती के योग्य भूमि को भस्म करती हुई भी बीज के अङ्कुरों को उत्पन्न करने में समर्थ बना देता है ॥ २९ ॥ कथावैचित्र्यपात्रं तद्वक्रिमाणं प्रपद्यते । यदङ्गं सर्गबन्धादेः सौन्दर्याय निबध्यते ॥९॥ काव्य की विचित्रता का भाजन जो अङ्ग ( अर्थात् प्रकरण ) काव्य आदि की
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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