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________________ ४२२ वक्रोक्तिजीवितम् जाता हुआ, वर्ण्य मान के औचित्य के कारण सुन्दर रचना का विषय बनता हुआ । कैसे-पुनः पुनः बार बार (उपनिबद्ध होकर) । कहाँ--प्रत्येक प्रकरण में, प्रकरण प्रकरण में अर्थात् स्थान स्थान पर ( उपनिबद्ध होकर सौन्दर्य की पुष्टि करता है )। ___ नन्वेवं पुनरुक्तपात्रतामसौ समासादयतीत्याह- अन्यूनन्तनोल्लेख. रसालङ्करणोज्ज्वलः, · अविकलाभिनयोल्लासशृङ्गाररूपकादिपरिस्पन्दभ्राजिष्णुः । यस्मात्प्रौढप्रतिभाभोगयोजितः, प्रगल्भतरप्रज्ञाप्रकरप्रकाशितः । अयमस्य परमार्थः-तदेवं सकलचन्द्रोदयादिप्रकरणप्रकारेषु वस्तु प्रस्तुतकथासंविधान कानुरोधान्मुहुर्मुरुपनि बध्यमानं यदि परिपूर्णपूर्ववि. लक्षण रूपकाद्यलकाररामणीयनिर्भरं भवति तदा कामपि रामणीयकमर्यादा वक्रतामवतारयति । ( इस पर पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि : इस प्रकार ( बार बार एक ही स्वरूप का वर्णन होने से तो) यह पुनरुक्त ( दोष ) का भाजन बन जायगा ? इस ( का उत्तर देने के ) लिए ( ग्रन्थकार ) कहता हैं कि–पूर्ण रूप से नूतन उल्लेख वाले रसों एवं अलङ्कारों से उज्ज्वल अर्थात् अविकल ढङ्ग से नवीन रूप से उपनिबद्ध किये गये शृङ्गार आदि तथा रूपक आदि के विलसित से सुशोभित होने वाला ( स्वरूप )। क्योंकि वह प्रौढ प्रतिभा की पूर्णता से सम्पादित अर्थात् अत्यन्त प्रवृद्ध ( कवि की ) बुद्धि वैभव से प्रकाशित हुआ ( स्वरूप सौन्दर्य को उत्पन्न करता है ) इसका सार यह है कि इस प्रकार प्रकरण प्रकारों में प्रस्तुत कथा की संघटना के अनुरोधवश बार-बार वर्णन किये जाने वाले चन्द्रोदय आदि पदार्थ यदि भलीभांति पहले से विलक्षण रूपकादि अलङ्कारों की रमणीयता से ओतप्रोत होते हैं तो वे रमणीयता के पराकाष्ठाभूत किसी लोकोत्तर बांकपन को प्रस्तुत करते हैं। (इस प्रकरण वक्रता के उदाहरण रूप में कुन्तक 'हर्षचरित' को उद्धृत करते हैं। पर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि किस प्रसङ्ग को विशेष रूप से निर्देश करते हैं। उसके बाद कुन्तक विस्तृत रूप में 'तापसवत्सराज चरित' नाटक के द्रकरण वक्रता के इस भेद से सम्बन्धित कुछ रमणीय उदाहरण श्लोकों को उद्धृत करते हैं । वे हृदय को प्रभावित करनेवाली द्वितीय अङ्क के प्रारम्भ की राजा की उक्तियों को उद्धृत कर उनका विवेचन करते हैं । कुरवकतरुर्गाढाश्लेषं मुखासवलालनाम् । वकुलविटपी रक्ताशोकस्तथा चरणाहतिम् ॥ १५ ॥ म. ने उक्त श्लोक की केवल दो ही पंक्तियां उद्धृत की हैं। इसके
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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