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________________ ४१६ वक्रोक्तिजीवितम् __ ऋषि दुर्वासा दुष्यन्त के ध्यान में मग्न शकुन्तला को शाप देते हुए कहते हैं कि ऐ शकुन्तले ) अनन्य हृदय से जिसके विषय में सोचती हुई तू अभ्यागत मुझ तपस्वी को नहीं जान रही है, वह बताये जाने पर भी प्रमत्त के समान पहले की गई वार्ता की तरह तुझे याद नहीं करेगा ॥ ८ ॥ रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान् पर्युत्सुकीभवति यत् सुखितोऽपि जन्तुः । तरचेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व भावस्थिराणि जननान्तरसौहृदानि ॥६॥ जो सुखी भी जीव रमणीय ( वस्तुओं) को देखकर तथा मीठे शब्दों को सुन कर उत्कण्ठित हो जाया करते हैं ( इससे ऐसा लगता है कि ) निश्चित ही वह ( विषय विशेष के ज्ञान के विना वासना रूप से स्थित दूसरे (पूर्व ) जन्म के स्नेह सम्बन्धों को याद करता है ॥ ९ ॥ प्रत्यादिष्टविशेषमण्डनविधिर्वामप्रकोष्ठार्पितं बिभ्रत्काञ्चनमेकमेव वलयं श्वासोपरक्ताधरः । चिन्ताजागरणप्रतान्तनयनस्तेजोगुणादात्मनः मंस्कारोल्लिखितो महामणिरिव श्रीणोऽपि नालक्ष्यते ॥१०॥ ( कन्चुको राजा दुष्यन्त को देखकर कहता है-) विशेष आभरणों का धारण करना छोड़ देने वाले, बाई कलाई में सोने के एक ही कंकण को धारण किए हुए (विरह के कारण गर्म ) सासों मे लाल हो गये अधर वाले एवं चिन्ता के कारण जागने से बहुत ही दुखती हुई आँखों वाले ( राजा दुष्यन्त ) अपनी तेजस्विता के कारण सान पर चढ़ाये गये ( संस्कारोल्लिखित ) मणि के समान क्षीण हो जाने पर भी क्षीण नहीं दिखाई पड़ते हैं ॥ १० ॥ अक्लिष्टबालतरुपल्लवलोभनीयं पीतं मया सदयमेव रतोत्सवेषु । बिम्बाधरं स्पृशसि चेभ्रमरप्रियायाः . स्त्वां कारयामि कमलोदरबन्धनस्थम् ॥ ११ ॥ ( राजा दुष्यन्त चित्र में शकुन्तला के पास मंडराते हुए भौरे को देखकर कहते हैं कि ) ऐ भौरे, यदि तू मेरे द्वारा सुरसोत्सवों में दयालुता के साथ पिये गये किसी के द्वारा भी मौजे न गए ( अक्लिष्ट ) नन्हें पौधे के पल्लव के समान सुन्दर विम्ब फल के सदृश लाल, मेरी प्रिया के, अधर का स्पर्श करता है तो कमल के भीतर तुझे बन्दी करा दूंगा ॥ ११ ॥
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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