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________________ ४१३ पतुपानेवः ."रामेण पर्यनुयुक्तजाम्बवतोऽपि वाक्यम्-- अनङ्करितनिःसीममनोरथरुहेष्वपि । कृतिनस्तुल्यसंरम्भमारभन्ते जयन्ति च ॥३॥ "राम के द्वारा पूछे गए जाम्बवान् का भी ( यह वाक्य ) (कभी ) अङ्करित न होने वाले अनन्त मनोरथ की उत्पत्ति होने पर भी निपुण लोग समान उत्साह के साथ ( उसे ) प्रारम्भ करते हैं और विजयी होते हैं ॥ ३ ॥ एवं विधमपरमपि तत एव विभावनीयमभिनवाद्भुतं भोगभङ्गीसुभगं सुभाषितसर्वस्वम्। इस प्रकार के अपूर्व एवं अद्भुत तथा आस्वादङ्गिमा से रमणीय दूसरे भी सूक्तिसर्वस्व वहीं से समझ लेना चाहिए। इस प्रकार 'अभिजातजानकी' से प्रकरणवक्रता का उदाहरण देकर कुन्तक रघुवंश महाकाव्य के पन्चम सर्ग से रघु तथा कौत्स के वृत्तान्त को प्रकरणवक्रता के उदाहरण रूप में उद्धृत करते हैं । उन्होंने जिन इलोकों को उपधृत कर उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है ये इस प्रकार हैं (एतावदुक्त्वा प्रतियातुकामं शिष्यं महर्षेर्नृपतिर्निषिध्य । ) किं वस्तु विद्वन् गुरवे प्रदेयं त्वया कियद्वेति तमन्वयुत ॥ ४॥ ( मैं अब दूसरे के पास जा रहा हूँ क्योंकि आप तो सर्वस्व दान कर चुके हैं, अतः आप से कुछ नहीं मांगूंगा ) इतना ही कहकर ( अन्यत्र ) जाने की इच्छा वाले महर्षि ( वरतन्तु ) के शिष्य ( कौत्स ) को ( जाने से ) रोक कर राजा ने, 'हे विद्वन् | आप को गुरु को कौन सी और कितनी वस्तु प्रदान करनी है। ऐसा उनसे प्रश्न किया ॥ ४॥ गुर्वर्थमर्थी श्रुतपारदृश्वा रघोः सकाशादनवाप्य कामम् । गतो वदान्यान्तरमित्ययं मे मा भूत्परीवादनवावतारः॥५॥ 'शास्त्रों का पारङ्गत, गुरुदक्षिणा के निमित्त याचना करने वाला (स्नातक कोत्स प्रसिद्ध दानी राजा) रघु के समीप से मनोवान्छित ( वस्तु ) न प्राप्त कर दूसरे दानी के पास चला गया' ऐसा यह ( आज तक कभी न हुआ) मेरा नवीन अपयश आविर्भूत न होवे । ( अतः आप जब तक मैं उसका प्रबन्ध करता हूँ, दो-तीन दिन मेरी अग्निशाला में ठहरें)॥५॥ तं भूपतिर्भासुरहेमराशि लब्धं कुबेरादभियास्यमानात् । दिदेश कौत्साय समस्तमेव पादं सुमेरोरिव वजमिन्नम् ॥६॥ HAPATRA
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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