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________________ वक्रोक्तिजीवितम् पूर्णेन्दोः परिपोष कान्तिवपुपः स्फार प्रभाभासुरं नेदं मण्डलमभ्युदेति गगने भासोजिहीर्षोर्जगत् । मारस्यो तिमातपत्र मधुना पाण्डु प्रदोषश्रियो ४०४ मानो बन्धुजनाभिलापदलनोऽघोच्द्यि किं न ते ॥ १६८ ॥ ॥ अपनी किरणों से संसार का उद्धार करने की इच्छा वाले और परिपुष्टि एवं सुषमा वाले शरीर वाले पूर्ण चन्द्र का यह चारों ओर फैली हुई कान्ति से दमकता हुआ मण्डल आकाश में नहीं उदित हो रहा है अपितु इस समय हल्की पीली सन्ध्या की शोभा के सदृश शोभावाले कामदेव का छत्र ऊपर तना हुआ है ( ऐसी स्थिति में ) अब भी तुम्हारा प्रियजनों की अभिलाषाओं को चूर कर देनेवाला मान छिन्न-भिन्न क्यों नहीं हो जाता ।। १६८ ।। ( यथा च ) - तव कुसुमशरत्वं शीत रश्मित्वमिन्दोद्वयमिदमयथार्थं दृश्यते मद्विधेषु । हिमगभैरभिमन्तर्मयूखे विसृजति स्त्वमपि कुसुमबाणान् वासारीकरोषि ।। १६६ ॥ ( और जैसे ) - तुम्हारी पुष्पबाणता और चन्द्रमा की शीतकिरणता ये दोनों ही मेरे जैसे लोगों के विषय में ठीक नहीं मालूम पड़ती (क्योंकि) हिम को अन्दर धारण करने वाली किरणों के द्वारा वह ( चन्द्रमा ) मेरे हृदय पर आग बरसाता है और तुम भी अपने फूल के बाणों को वज्र की शक्ति से संवलित बनाये दे रहे हो ॥ १६९ ॥ इस प्रकार कुन्तक अपहूनुति अलङ्कार का विवेचन समाप्त कर दो अथवा दो से अधिक अलंकारों की संसृष्टि तथा सङ्कर वाले स्थलों का विवेचन करते हैं । इस स्थल पर पाण्डुलिपि में कारिकायें तो लुप्त ही थीं। साथ ही वृत्तिभाग भी इतना भ्रष्ट एवं दुर्बोध था कि उसके आधार पर भी कारिकाओं का पुनर्निर्माण असम्भव था । अतः संसृष्टि तथा सङ्कर का लक्षण प्रस्तुत करने वाली कारिकायें वृत्ति तथा उदाहरण भाग डा० डे द्वारा नहीं प्रस्तुत किये जा सके । ग्रन्थकार ने संसृष्टि के दो उदाहरण प्रस्तुत किए थे जो इस प्रकार हैं (संसृष्टिर्यथा ) - आश्लिष्टो नवकुङ्कुमारुणरविव्यालोकितैकाश्रितो लम्बान्ताम्बरया समेत्य भुवने ध्यानान्तरे सन्ध्यया । चन्द्रांशत्करकोर का कुल मतिर्ध्वान्तद्विरेफोऽधुना देव्या स्थापितदोहदे कुरवके भाति प्रदोषागमः ।। १७० ।।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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