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________________ ३९० वक्रोक्तिजीवितम् को अपने शरीर से प्रशंसनीय समस्त शरीर वाली, प्रत्येक अङ्गों की लीला से त्रिलोकी को जीत लेनेवाले और चन्द्रतुल्य रूप वाले सम्पूर्ण मुख को धारण करने वाली होने के नाते अतिशायिन. पाया वह रुक्मिणीतुम लोगों की रक्षा करें॥१४९।। इसके बाद ग्रन्थकार व्यतिरेक के तीसरे प्रकार का विवेचन प्रारम्भ करते हैंलोकप्रसिद्धसामान्यपरिस्पन्दाद्विशेषतः । व्यतिरेको यदेकस्य स परस्तद्विवक्षया ॥ ३५ ॥ सर्वप्रसिद्ध साधारण व्यापार से विशिष्ट होने के नाते जो एक वस्तु का । औपम्य विवक्षा से पृथक्करण किया जाता है वह दूसरा व्यतिरेक है। अस्यैव प्रकारान्तरमाह-लोकप्रसिद्धेत्यादि । परोऽन्यः स व्यतिरेकालङ्कारः । कीदृशः-यदेकस्य वस्तुनः कस्यापि व्यतिरेकः पृथक्करणम् । कस्मात्-लोकप्रसिद्धसामान्यपरिस्पन्दात् । लोकप्रसिद्धो जगत्प्रतीतः सामान्यभूतः सर्वसाधारणो यः परिस्पन्दो व्यापारस्तस्मात् । कुतो हेतोः-विशेषतः, कुतश्चिदतिशयात् । कथम् ? तद्विक्षया । 'तद्' इत्युपमादीनां परमार्थस्तेषां विवक्षया । तद्विवक्षितत्वेन विहितः । (यथा) इसी ( व्यतिरेक ) के दूसरे भेद को बताते हैं--लोकप्रसिद्ध इत्यादि (कारिका के द्वारा )। पर अर्थात् दूसरा वह व्यतिरेक अलङ्कार होता है । किस तरह का। किसी एक वस्तु का व्यतिरेक अर्थात् जो पृथक करना है उस तरह का । किससे ? लोक में प्रसिद्ध साधारण स्वभाव से। लोक में प्रसिद्ध सारी दुनिया में विख्यात । सामान्यभूत अर्थात् सर्वसाधारण जो परिस्पन्द याने व्यापार है उससे । किस कारण से ? विशेषता के कारण अर्थात् किसी अनिर्वचनीय अतिशय वश । क्यों ? उसे कहने की इच्छा से । 'तद्' इस पद से उपमा आदि का वास्तविक तत्त्व ग्रहण किया गया है । उसके कहने की कामना से । उसके विवक्षित होने के नाते किया गया हुआ । जैसे-- चापं पुष्पितभूतलं सुरचिता मौर्वी द्विरेफावलिः पूर्णेन्दोरुदयोऽभियोगसमयः पुष्पकरोऽप्यासरः। शस्त्राण्युत्पलकेतकीसुमनसो योग्यात्मनः कामिनां त्रैलोक्ये मदनस्य सोऽपि ललितोल्लेखो जिगीषाग्रहः।। १५० ।। योग्य स्वरूप वाले कामदेव का फूलों से युक्त पृथ्वीतल धनुष है, भ्रमरों की पंक्ति ही सुन्दर ढंग से बनी हुई प्रत्यंचा है पूर्णमासी के चन्द्रमा का उदय ही आक्रमणकाल है, वसन्त ही आगे आगे चलने वाला (चोबदार है ) कमल और केवड़ा के पुष्प ही शास्त्र हैं, तीनों लोकों में कामियों के जीत लेने की इच्छा का वह भाग्रह भी ललित उल्लेख वाला है ॥ १५० ॥
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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