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________________ तृतीयोन्मेषः ३८५ कुन्तक ने श्लेष अलङ्कार को तीन प्रकारों में विभक्त किया है, यद्यपि उन तीनों प्रकारों का सही सही नामकरण या उनकी विशेषताओं को बता सकना असम्भव है । डा० डे के अनुसार कुन्तक ने सम्भवतः उद्भट का अनुसरण किया है तथा इलेषालङ्कार को अर्थ, शब्द एवं शब्दार्थ से सम्बन्धित कर तीन भेद किए हैं। उनमें से पहले भेद ( अर्थश्लेष ) का उदाहरण है स्वाभिप्रायसमर्पणप्रवणया माधुर्यमुद्राङ्कया विच्छित्या हृदयेऽभिजातमनसामन्तः किमप्युल्लिखत् । आरूढं रसवासनापरिणते काष्ठां कवीनां पर कान्तानाञ्च विलोकितं विजयते वैदग्ध्यवकं वचः ।। १४३॥ कवियों की अपने आकृत को अभिव्यक्त कर देने में निपुण माधुर्य की आनन्ददायिनी रचना वाली रमणीयता के कारण रस की वासना से परिपक्व सुकुमारमति सहृदयों के हृदय के भीतर एक अनिर्वचनीय छाप छोड़ देने वाली. मर्यादा पर स्थित विदग्धता के कारण वक्रतासम्पन्न वाणी और रमणियों की अपने मनोवान्छित को व्यक्त कर देने में सक्षम मिठास भरे निमीलन के चिह्न वाली भंगिमा से रसिकचित्त लोगों के अभिलाष और वासना के कारण परिपक्क हृदय में जाने क्या अंकित कर देती हुई ऊपर की ओर उठी हुई और चतुराई के कारण बाँकी लाजवाब चितवन सर्वातिशायिनी है ॥ १४३ ॥ श्लेष के दूसरे प्रकार ( शब्दश्लेष ) का उदाहरण इस प्रकार है येन ध्वस्तमनोभवेन बलिजित्कायः पुरात्रीकृतो यश्वोद्वत्तभुजङ्गहारवलयोगङ्गाश्च यो धारयत् । यस्याहुः शशिमच्छिरोहर इति स्तुत्यश्च नामामराः पायात्स स्वयमन्धकक्षयकरस्त्वां सवेदोमाधवः ॥ १४४ ॥ ( शिवपक्ष में ) कामदेव को ध्वस्त ( भस्म ) कर देने वाले जिन्होंने बलि को जीतने वाले (वामनावतार भगवान् ) विष्णु के शरीर को पहले (त्रिपुरदाह के समय ) अस्त्र (बाण ) बनाया था और जो भुजङ्गों के ही हार एवं कङ्कण को धारण किये हुए हैं और जिन्होंने गङ्गा को ( अपनी जटाओं में धारण किया था तथा देवताओं ने जिनका स्तुत्य नाम 'हर' और 'शशिमच्छिर' ( चन्द्रमा से युक्त शिरवाला ) बताया है, ऐसे वे अन्धकासुर का विनाश करने वाले उमापति भगवान् शङ्कर हमेशा स्वयं ही तुम्हारी रक्षा करें। (विष्णुपक्ष में ) जिन अजन्मा ने शकटासुर को ध्वस्त किया था। तथा बलि को जीतने वाले अपने शरीर को पहले ( सागरमन्थन के समय ) स्त्री ( मोहिनीरूप ) बना दिया था, और जो दुष्ट ( कालिय ) नाग का वध करने २५ व० जी०
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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