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________________ ३५८ वक्रोक्तिजीवितम कार्कश्यं कलया च कोकिलवधूकण्ठेष्विव प्रस्तुतं सीतायाः पुरतश्च हन्त शिखिनां बर्हाः सगर्दा इव ।। ८८ ॥ दूसरे सम्बन्ध के आधार पर वाक्य में अन्तर्भूत प्रस्तुत पदार्थ की प्रशंसा जैसे—आश्चर्य है ! सीता के सामने चन्द्रमा मानों काजल से पोत दिया गया है, हरिणियों की आँखें मानों जड हो गई हैं, मूंगे की लता मानों मुरझाई हुई (अर्थात् धीमी पड़ गई) लालिमा वाली हो गई है, स्वर्णप्रभा मानों श्याम वर्ण हो गई है, एवं कठोरता मानो कपटपूर्वक कोकिलबधुओं के कण्ठ में उपस्थित हो गई है तथा मयूरों की पूंछे मानो निन्दनीय हो गई हैं। सम्बन्धान्तराश्रयणाद् सकलवाक्यव्यापकप्रस्तुतप्रशंसा ( यथा)परामृशति सायकं क्षिपति लोचनं कार्मुके विलोकयति वल्लभां स्मितसुधार्द्रवक्त्रं स्मरः । मधोः किमपि भाषते भुवननिर्जयाप्रथावनि गतोऽहमिति हर्षितः स्पृशति गोत्रलेखामहो' ।। ८४ ॥ अन्य सम्बन्ध के आधार पर समस्त वाक्य में व्यापक प्रस्तुत पदार्थ की प्रशंसा जैसे अहो ! कामदेव बाणों का परामर्श करता है, धनुष पर निगाह फेंकता है, मुस्कुराहट रूपी अमृत से मुख को आई कर प्रियतमा को देखता है, मधु से कुछ बातें करता है, 'लोकों की विजय के लिए रणक्षेत्र के अग्रभाग में पहुंच गया है' (ऐसा सोचकर ) अतः हर्षित होकर छत्ररूपी चन्द्रलेखा का स्पर्श कर रहा है। (अगर 'गात्रलेखां स्पृशति' यह पाठ किया जाय तो ताल ठोंकता है यह अर्थ भधिक संगत होगा)। इसके बाद 'असत्यभूतवाक्यार्थतात्पर्याप्रस्तुतप्रशंसा' के उदाहरणस्वरूप कुन्तक ने एक प्राकृत श्लोक को उद्धृत किया है जो कि पाण्डुलिपि के .. १. आचार्यविश्वेश्वर जी ने यहाँ 'गोत्रलेखाम्' पाठ देकर के 'कामदेव ( उस नवयौवना के) अङ्गों का स्पर्श करता है।' यह अर्थ दिया है । गोत्र का कोश है "गोत्रं क्षेत्रेऽन्वये छत्रे सम्भाव्ये बोधवर्मनोः । वने नाम्नि च, गोत्रोऽद्रो, गोत्रा भुवि गवांगणे ॥" (अनेकार्थसङ्ग्रह) इन पर्यायों में से किसी का भी ग्रहण करने पर विश्वेश्वर जी का अर्थ नहीं निकल पाता। यहाँ कुन्तक के अनुसार कामदेव का चेष्टातिशय बप्रस्तुत है जब कि प्रस्तुत युवती के यौवन के प्रारम्भ का निर्देश करता है।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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