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________________ . तृतीयोन्मेषः ३४१ झींगुरों से युक्त बड़े-बड़े जंगलों को, सूखते हुए जलवाली नदियों को तथा ( विरही) परदेशियों के हृदयों को आषाड़ का महीना नष्ट कर देना चाहता है ॥ ७० ॥ ( इसके बाद कुन्तक अलग-अलग भामहकृत दीपक अलंकार के लक्षण एवं वर्गीकरण की आलोचना उस प्रकार करते हैं कि ) तत्र क्रियापदानां दीपकत्वं प्रकाशमत्वम् , यस्मात् क्रियापदैरेव प्रकाश्यन्ते स्वसम्बन्धितया स्याप्यन्ते । ( भामह के अनुसार ) उसमें ( दीपकालंकार ) में क्रियापदों की दीपकता अर्थात् प्रकाशकता होती है क्योंकि क्रियापद ही ( अन्य पदों को ) प्रकाशित करते हैं अर्थात् अपने से सम्बन्धित रूप में ( अन्य पदों को ) व्यवस्था करते हैं । तदेवं सर्वस्य कस्यचिद्दीपकव्यतिरेकिणोऽपि क्रियापदस्यैकरूपत्वात् दीपकाद् द्वैतं प्रसज्यते। किंश्च शोभाकारित्वस्य युक्तिशून्यत्वादलङ्करणत्वानुपपत्तिः । ( इसका खण्डन कुन्तक करते हैं कि ) तो इस प्रकार दीपक से भिन्न भी सभी किसी क्रियापद के ( अन्य दो पदों की सम्बन्धित रूप में व्यवस्था करने के कारण )समान होने से दीपकालङ्कार से घालमेल होने लगेगा। और फिर सौन्दर्योत्पादकता के युक्तियुक्त न होने से अलङ्कारता ही नहीं हो सकेगी। अन्यञ्च आस्तां तावक्रिया, एवं यस्यकस्यचिद्वाक्यवर्तिनः पदस्य सम्बन्धितया पदान्तरद्योतनस्वभाव एव, परस्परान्वयसम्बन्धनिबन्धनाद्वाक्यार्थस्वरूपस्येति पुनरपि दीपकद्वैतमायातम् । और भी, क्रिया को तब तक रहने दीजिये। इस प्रकार तो वाक्य में स्थित जिस किसी भी पद का, वाक्यार्थ के स्वरूप के परस्पर (पदों) के अन्वय-सम्बन्ध-मूलक होने के कारण, ( परस्पर ) सम्बन्धित होने के कारण दूसरे पद को प्रकाशित करना स्वभाव ही है इस लिये फिर (किसी भी पद का) दीपकालङ्कार के साथ घालमेल हो सकता है (अर्थात् कोई भी पद दीपक हो सकता है। आदौ मध्ये चान्ते वा व्यवस्थित क्रियापदमतिशयमासादयति, येनालङ्कारतां प्रतिपद्यते । तेषां वाक्यादीनां परस्परं तथाविधः कः स्वरूपातिरेकः सम्भवति ? (और यदि आप यह कहें कि ) आदि, मध्य अथवा अन्त में व्यवस्थित क्रियापद उत्कर्ष युक्त होता है अतः यह अलङ्कार बन जाता है (तो आप यह
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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