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________________ ३३८ वक्रोक्तिजीवितम् 'क्षिप्तो हस्तावलग्नः ॥' इस श्लोक में ( आपके द्वारा किया गया ) रसवदलंकार का खण्डन उचित नहीं है। ग्रन्थकार ( इसका उत्तर देते हैं ) कि यह बात सही है ( कि वह भी । रसवद् अलंकार का उदाहरण है ) लेकिन वहाँ पर हम विप्रलम्भ श्रृंगार का निषेध करते हैं। शेष का तो वहाँ भी उस ( कामी एवं शराग्नि के ) समान व्यवहार होने के कारण रसदवलकारता अनिवार्य है। और भी अन्य अलङ्कारों के विद्यमान रहने पर रसवद् की अपेक्षा होनेवाली संसृष्टि अथवा सङ्कर अलंकार को संज्ञा का खण्डन नहीं हो जाता है । ( अर्थात् रसवद् के साथ अन्य अलङ्कारों की संसृष्टि अथवा सङ्कर हमें स्वीकार है । उनका हम निषेध नहीं करते ) जैसे अङ्गुलीभिरिव केशसञ्चयं सन्निगृह्य तिमिरं मरीचिभिः । कुड्पलीकृत सरोजलोचनं चुम्बतीव रजनीमुखं शशी ।। ६५ ।। . अंगुलियों द्वारा केश समुदाय की तरह किरणों द्वारा अन्धकार को भली भौति बाँध कर चन्द्रमा ( नाटक ) बन्द किए हुए नयन रूप कमलोंवाले ( नायिका ) के मुख को मानो चूम रहा है ।। ६५ ।।। अत्र रसवदलङ्कारस्य रूपकादीनाञ्च सन्निपातः सुतरां न समुद्भासते । तत्र 'चुम्बतीव रजनीमुखं शशी' इत्युत्प्रेक्षालक्षणस्य रसवदलङ्कारस्य प्राधान्येन निबन्धनम्, तदङ्गत्वेनोपमादीनां केवलस्य प्रस्तुतपरिपोषाय परिनिष्पन्नवृत्तेः । __ यहाँ रसवदलंकार की तथा रूपकादि अलंकारों की समान स्थिति भली भाँति व्यक्त नहीं होती है क्योंकि उसमें 'रात्रि के मुख को मानो चन्द्रमा चूम सा रहा है' इस प्रकार के उत्प्रेक्षारूप रसवदलंकार की मुख्य रूप से योजना की गई है, तथा उसके अङ्ग रूप में उपमा आदि अलंकारों की। क्योंकि केवल (उत्प्रेक्षित रूप रसवदलंकार की ही) स्थिति प्रस्तुत ( शृङ्गार ) के परिपोष के लिए पर्याप्त थी। ऐन्द्र धनुः पाण्डुपयोधरेण शरद्दधानानखक्षताभम् । प्रसादयन्ती सकलङ्कमिन्दुं तापं रवेरभ्यधिकं चकार ।। ६६ ।। पाण्डुवर्ण पयोधर ( स्तन या मेघ ) से आर्द्रनखक्षत की आभावाले इन्द्रधनुष को धारण करती हुई, कलङ्कयुक्त चन्द्रमा ( प्रतिनायक ) की प्रसन्न | काशित-खुश) करती हुई शरत् ( नायिका ) ने सूर्य ( नायक ) के ताप । गर्मी एवं सन्ताप ) को और अधिक कर दिया।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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