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________________ ३३३ तृतीयोन्मेषः ( आश्चर्य है कि) तुम्हारे कपोलस्थल पर विद्यमान क्रोध प्रगाढ़ वासना के कारण दूसरे भाव को प्रश्रय नहीं देता है। पर इसका भी विवेचन उन्होंने किस ढङ्ग से किया है और इसमें समाहित के अलङ्कारत्व का कैसे खण्डन किया है.। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसके बाद कुन्तक कारिका में निर्दिष्ट दूसरे प्रकार अर्थात् दण्डी के अभिमत लक्षण का खण्डन प्रस्तुत करते हैं । __ यदपि कैश्चित् प्रकारान्तरेण समाहिताख्यमलङ्करणमाख्यातं तस्यापि तथैव भूषणत्वं न विद्यते । तदभिधत्ते-प्रकारद्वयशोभिनः पूर्वोक्तेन प्रकारेणानेन चापरेणेति द्वाभ्यां शोभमानस्य समाहितस्यालङ्कारत्वं न सम्भवति । और भी जो किन्हीं आचार्यों ने दूसरे ढङ्ग से समाहित नामक अलङ्कार प्रतिपादित किया उसकी भी उसी प्रकार अलङ्कारता नहीं है । इसीलिये (कारिका में कहा गया है ) दो प्रकारों से सुशोभित होने वाले ( समाहित अलङ्कार ) का । अर्थात् पहले बताये गये ( उद्भट के अभिमत ) प्रकार से एवं इस दूसरे ( दण्डी द्वारा अभिमत प्रकार ) से दोनों प्रकारों द्वारा शोभित होने वाले समाहित अलङ्कार की अलङ्कारता सम्भव नहीं होती है। इस दूसरे प्रकार का खण्डन करते समय उन्होंने दण्डी के लक्षण एवं उदाहरण को उद्धृत किया है जो इस प्रकार हैलक्षण है किञ्चिदारभमाणस्य कार्य दैववशात्पुनः ।। तत्साधन-समापत्तियों तदाहुः समाहितम् ।। ५६ ।। किर्सी कार्य को आरम्भ करने वाले को दैववश पुनः उसके साधन की सम्प्राप्ति हो जाने पर समाहित अलङ्कार होता है ॥ ५९ ॥ एवं उदाहरण है मानमस्या निराकतुं पादयोर्मे पतिष्यतः। उपकाराय दिष्टयैतदुदीर्ण घनगर्जितम् ॥ ६० ॥ इसके मान को दूर करने के लिए पैरों पर गिरते हुए मेरे भाग्य से यह मेघ गर्जन उत्पन्न हो गया ॥ ६० ॥ पर इसका खण्डन उन्होंने किन तो द्वारा किया है यह कुछ कहा
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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