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________________ ३२६ वक्रोक्तिजीवितम् अपने स्वरूप से भिन्न किसी दूसरे का ज्ञान न कराने के कारण (प्रेयस् अलङ्कार नहीं हो सकता ) यह दोष यहाँ भी सम्बद्ध हो जाता है।... अन्य पक्ष स्वीकार करने पर जो अलङ्कार्य है वही अलङ्कार है इस तरह प्रेयस् । और रसवत् दोनों ही अलङ्कारों में अपने में ही क्रिया-विरोध होने के कारण ( अलङ्कारता नहीं हो पायेगी ) क्योंकि कोई भी शरीर अपने ही कन्धे पर कभी भी नहीं चढ़ती यह बात सिद्ध ही है। [ इसके अनन्तर प्रेयस् को अलङ्कार मानने के विषय में एक अन्य आपत्ति का विवेचन करने के उपरान्त कुन्तक संकेत करते हैं कि ऐसे स्थलों को संसृष्टि तथा संकर का भी उदाहरण नहीं कहा जा सकता। वे इसी पुष्टि के लिए अधोलिखित श्लोक उदृत करते हैं-] इन्दोर्लक्ष्म त्रिपुरजयिनः कण्ठमूलं मुरारिदिङ्नागानां मदजलमसीभाक्षि गण्डस्थलानि । अद्याप्यु-वलयतिलकश्यामलिम्नानुलिप्तान्याभासन्ते वद धवलितं किं यशोभिस्त्वदीयैः ॥४६॥ अत्र प्रेयोििहतिरलङ्कार्यः, व्याजस्तुतिरलङ्करणम् । न पुनरुभयोरलङ्कारप्रतिभासो येन तद्वथपदेशः सङ्करव्यपदेशो वा...", तृतीयस्यालङ्कायतया वस्त्वन्तरस्याप्रतिभासनात् । हे पृथ्वीमण्डल के तिलक ( राजन् ! ) चन्द्रमा का लान्छन, भगवान शङ्कर का कण्ठमूल, भगवान् विष्णु, तथा दिग्गजों के मदजल रूप अन्जन को धारण करने वाले कपोलस्थल आज भी कालिमा से पुते हुए प्रतीत होते हैं, तो फिर बताओ कि तुम्हारी कोतियों ने किसे सफेद बनाया है ॥ ४९ ॥ ( तथा इसका विश्लेषण करते हैं कि यहां पर अत्यन्त प्रिय कथन अलङ्कार्य है, एवं व्याजस्तुति ( उसका ) अलङ्कार है न कि दोनों ही अलङ्कार रूप में प्रतीत होते हैं जिससे ( दोनों के लिए ) अलङ्कार सज्ञा या संकर सन्जा ( दी जाय ).... क्योंकि इन दो के अतिरिक्त कोई तीसरा पदार्थ अलङ्कार्य रूप से प्रतीत नहीं होता। ___अन्यस्मिन् विषये प्रेयो [प्रायो ? ] भणितिविविक्ते वर्णनीयान्तरे प्रेयसो विभूषणत्वादुपमादेरिवोपनिबन्धः प्राप्नोति इति न कचिदपि दृश्यते । तस्मादन्यत्रान्यथा [दा ? ] प्रेयसो न युक्तियुक्तमलङ्करणत्वम् । रसवतोपि तदेव, योगक्षेमत्वात् । अन्य उदाहरणों में (जहाँ ) वर्णनीय प्रियतर आख्यान से भिन्न दूसरा (पदार्थ ) है वहाँ प्रेयस् ( अलङ्कार ) के विभूषण रूप में होने से ( अन्य ) उपमा आदि अलङ्कारों की तरह इसका प्रयोग प्राप्त होता है (परन्तु) ऐसा
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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