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________________ तृतीयोम्मषः ३२३ प्रवासविप्रलम्भस्य पृथग्व्यापारे रसगन्धोऽपि ? यदि वा प्रेयसः प्राधान्ये तदङ्गत्वात् करुणरसस्यालङ्करणत्वमित्यभिधीयते तदांपे न निरवद्यम् । यस्माद् द्वयोरप्येतयोरुदाहरणयोमुख्यभूतो वाक्यार्थः करुणात्मनैव विवर्तमानवृत्तिरूपनिबद्धः । पर्यायोक्तान्यापदेशन्यायेन वाच्यताव्यतिरिक्तयोः प्रतीयमानतया न करुणस्य रसत्वाद् व्यङ्गयस्य सतो वाच्यत्वमुपपन्नम् । नापि गुणीभूतव्यङ्ग्यस्य विषयः, व्यङ्ग्यस्य करुणात्मनैव प्रतिभासनात् । न च द्वयोरपि व्ययत्वम्, अङ्गाङ्गिभावस्यानुपपत्तेः । एतच्च यथासम्भवमस्माभिर्विकल्पितम् । न पुनस्तन्मात्र •Of 1. वैसे व्यभिचारिभावों के औचित्य की चारुता अथवा उसके स्वरूप का अनुप्रवेश होने के कारण प्रवास विप्रलम्भ के दूसरी तरह के व्यापार के होने पर रस का गन्ध भी कहाँ मिल सकता है ? यदि कोई कहे कि प्रेयस के प्रधान होते के कारण उसके पोषक होने के नाते करुण रस को अलङ्कार कहा जाता है तो वह कथन भी निर्दोष न होगा क्योंकि उन दोनों उदाहरणों में प्रधान हो उठा हुआ वाक्यार्थ करुण के रूप में ही परिणत होने वाले व्यापार वाला प्रस्तुत किया गया है । पर्यायोक्त तथा अन्यापदेश रूप अप्रस्तुत प्रशंसा के न्याय के अनुसार वाच्यता से भिन्न इन दोनों के प्रतीयमान होने के नाते और करुण के रस होने के कारण व्यङ्गय होने पर वाच्यता समीचीन नहीं मानी जा सकती । और न गुणीभूत व्यङ्गय का ही विषय माना जा सकता है क्योंकि व्यजय करुण के रूप में ही प्रतिभासित होता है। दोनों की भी व्यङ्ग्यता नहीं मानी जा सकती क्योंकि अङ्गाङ्गिभाव उपपन्न नहीं होता है । यह विकल्प हमारे द्वारा यथाशक्ति प्रस्तुत किया गया .... | किन, 'काव्ये तस्मिन्नलङ्कारो रसादिः' इति रस एवालङ्कारः केवलः, न तु रसवदिति मत्प्रत्ययस्य जीवितम् न किञ्चिदभिहितं स्यात् । एवं सति शशार्थ ......दनस्थैव ( शशविषाणवदनवस्थैव ? ) तिष्ठतीत्येतदपि न किञ्चित् । और फिर उस काव्य में रसादि अलङ्कार होते हैं इस कथन से केवल रस ही अलङ्कार होता है, न कि रसवत् और इस तरह मत् प्रत्यय का कोई भी वास्तविक आधार कहा गया हुआ नहीं माना जा सकता । ...... विवेचन कर कुन्तक प्रेयस् अलङ्कार का रसवदलङ्कार से घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस आलोचना करते हैं । वे आचार्य दण्डी के प्रेयः अलङ्कार के लक्षण 'प्रेयः प्रियतराख्यानम्' ( २. २७५ ) का सन्दर्भ [ इस प्रकार रसवदलङ्कार का विवेचन प्रारम्भ करते हैं, जिसका विषय में वे भामह के सिद्धान्त की
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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