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________________ तृतीयोन्मेषः ३१५ रस विद्यमान है या स्थित है इस प्रकार इससे मतुप् प्रत्यय करने पर ( वह रसवत् कहा जायगा और ) उसका अलंकार ( रसवदलंकार हुआ इस प्रकार ) षष्ठी ( तत्पुरुष) समास किया जा सकता है। अथवा रसवान् है यह अलंकार अतः ( रसव दलंकार हुआ) ऐसा विशेषण समास किया जा सकता है। उनमें पहले ( षष्ठी समास वाले ) पक्ष में-रस से भिन्न अन्य दूसरा । कोई ) पदार्थ है जिसका कि यह अलंकार है। यदि ( कहें कि काव्य ही ( वह पदार्थ ) है तो उसमें भी उस ( रस ) से भिन्न कौन ऐसा पदार्थ है जिसमें 'रसवदलंकार' इस संज्ञा को अवसर प्राप्त होता है । ( तथा विशेषण समास पक्ष में ) विशेषण ( अर्थात् रस ) से भिन्न कोई पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता जो 'रसवान् अलंकार' इस व्यवस्था को प्राप्त कर सके। ( अर्थात् रस को ही रसवान् अलंकार कहा जा सकता है जिसका कि पहले ही खण्डन कर चुके हैं कि रस अलंकार्य होता है अलंकार नहीं) तो इस प्रकार उक्त स्वरूप वा मार्ग में रसवदलंकार के शब्द एवं अर्थ की सङ्गति भी नहीं होती। यदि वा निदशनान्तरविषयतया समासद्वितयेऽपि शब्दार्थसङ्गतियोजना विधीयते, यथा तन्वी मेघजलार्द्रपल्लवतया धौताधरेवाश्रुभिः शून्येवाभरणः स्वकालविरहाद् विश्रान्तपुष्पोद्गमा । चिन्तामौनमिवास्थिता मधुकृतां शब्दविना लक्ष्यते चण्डी मामवधूय पादपतितं जातानुतापेव सा ।। ४० ।। अथवा यदि दूसरे उदाहरणों के इसका विषय होने से दोनों तरह के समासों में शब्द और अर्थ की संगति की योजना बनाई जाती है। जैसे ( यह लता) बादलों के जल से भीगे हुए नये किसलयों वाली होने के कारण आंसुओं से धुल गये अधर वाली-सी अपना समय बीत जाने के कारण विकसित पुष्पों से रहित होने के कारण आभूषणों से रहित-सी एवं भ्रमरों के गुञ्जन के अभाव में, चिन्ता के कारण मौन होकर स्थित-सी पैरों पर गिरे हुए मुझे तिरस्कृत कर उत्पन्न पश्चात्ताप वाली उस क्रुद्धा प्रियतमा उर्वशी-सी प्रतीत होती है ॥ ४० ॥ यथा वा तरङ्गभ्रूभङ्गा क्षुभितविहगश्रेणिरशना विकर्षन्ती फेनं वसनमिव संरम्भशिथिलम् । Part - 1
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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