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________________ २६६ वक्रोक्तिजीवितम् 'वन्देत राम्' यहाँ पर कोई अपूर्व प्रत्ययवक्रता कवि के हृदय में स्फुरित होती है। इसीलिए 'पुनः' शब्द का प्रयोग पहले की अपेक्षा विशेष का प्रतिपादन करने के लिये किया गया है। __एव नामाख्यातस्वरूपयोः पदयोः प्रत्येक प्रकृत्याद्यवयव विभागद्वारेण यथासंभवं वक्रत्वं विचार्येदानीमुपसर्गनिपातयोरव्युत्पन्नत्वादसंभव द्विभविभक्तित्वाच्च निरस्तावयवत्वे सत्यविभक्तयोः साकल्येन वक्रतां विचारयति इस प्रकार नाम एवं आख्यात रूप पदों में से प्रत्येक के प्रकृति आदि अङ्गों को विभक्त करके ( अलग अलग ) यथासम्भव वक्रता का विवेचन कर अब उपसर्ग तथा निपातों के रूढ़ होने से तथा विभक्तियों के सम्भव न होने से अङ्गों से हीन होने पर समग्र रूप से वक्रता का विवेचन करते हैं रसादिद्योतनं यस्यामुपसर्गनिपातयोः। वाक्यैकजीवितत्वेन सा परा पदवकता ॥३३॥ जिस ( वक्रता ) में उपसर्ग एवं निपातों की ( शृङ्गारांदि) रसों की प्रकाशकता ( व्यंजकता ) वाक्य के एकमात्र प्राण रूप से होती है, वह दूसरी पदवक्रता होती है ॥ ३३ ॥ सापरा पदवता--सा समपितस्वरूपापरा पूर्वोक्तव्यतिरिक्ता पदवऋत्वविच्छित्तिः। अस्तीति संबन्धः । कोशी-यस्यां वऋताया मुपसर्गनिपातयोर्वयाकरणप्रसिद्धाभिधानयो रसादिद्योतनं शृगारप्रभति. प्रकाशनम् । कथम्-वाक्यकजीवितत्वेन। वाक्यस्य श्लोकादेरेकजीवितं वाक्यकजीवितं तस्य भावस्तत्त्वं तेन। तदिदमुक्तं भवतियद्वाक्यस्यैकस्फुरितभावेन परिस्फुरति यो रसादिस्तत्प्रकाशनेनेत्यर्थः । पथा वह दूसरी पदवक्रता होती है अर्थात् पहले बताई गई पदवक्रता से भिन्न, जिसका स्वरूप बताया जा रहा है वह पदों के बांकपन की शोभा होती है। ( इस कारिका का ) अस्ति इस क्रिया से सम्बन्ध है । कंसी ( वक्रता )-जिस वक्रता में वैयाकरणों में प्रसिद्ध सज्ञा वाले उपसर्ग एवं निपातों का रसादि का द्योतन अर्थात् श्रृङ्गारादि ( रसों ) का प्रकाशन ( होता है ) । कैसे (होता है )-वाक्य के एक मात्र प्राण रूप से, वाक्य अर्थात् श्लोकादि उसका जो अकेला जीवन है वह कहा जायगा वाक्य का एकमात्र जीवन । उसके भाव
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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