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________________ वक्रोक्तिजीवितम् प्रत्यक्तापरभावश्च विपर्यासेन योज्यते । यत्र विच्छित्तये सैषा ज्ञेया पुरुषवक्रता ॥ ३० ॥ इस प्रकार सङ्ख्यावक्रता का विवेचन कर पुरुषों के उसका विषय होने के कारण क्रमशः अवसर प्राप्त पुरुषवक्रता का विवेचन करते हैं--- जहाँ वैचित्र्य की सृष्टि करने के लिए अपने स्वरूप को और दूसरे के स्वरूप को परिवर्तन के साथ निबद्ध किया जाता है उसे 'पुरुषवक्रता' समझना चाहिए || ३० ॥ २६२ त्रयस्यां प्रत्यक्ता निजात्मभावः परभावश्च श्रन्यत्वमुभयमप्येतद्विपर्यासेन योज्यते विपरिवर्तनेन निबध्यते । किमर्थम् - विच्छित्तये वैचित्र्याय । सैषा वर्णितस्वरूपा ज्ञेया शातव्या पुरुषवक्रता पुरुषवऋत्वविच्छित्तिः । तदयमत्रार्थः यदन्यस्मिन्नुत्तमे मध्यमे वा पुरुष प्रयोक्तव्ये वैचित्र्यायान्यः कदाचित् प्रथमः प्रयुज्यते । तस्माच्च पुरुषक योगक्षेमत्वादस्मदादेः प्रातिपदिकमात्रस्य च विपर्यासः पर्यवस्यति । जहाँ अर्थात् जिस ( वक्रता ) में प्रत्यक्ता अर्थात् अपना स्वरूप तथा परभाव अर्थात् अन्य का स्वरूप ये दोनों ही परिवर्तन के साथ संयोजित किये जाते हैं अर्थात् प्रयुक्त किए जाते हैं। किस लिए विच्छित्ति अर्थात् विचित्रता लाने के लिए। ऐसा जिसका वर्णन किया गया है उसे पुरुषवक्रता अर्थात् पुरुषों के बांकपन से उत्पन्न शोभा जानना अथवा समझना चाहिए। तो यहाँ इसका आशय यह है कि जहाँ अन्य, उत्तम, अथवा मध्यम पुरुष का प्रयोग करने के अवसर पर, विचित्रता लाने के लिए अन्य पुरुष अर्थात् प्रथम पुरुष का प्रयोग किया जाता है । और इस लिए किसी पुरुष के ले आने और सुरक्षित रखने के कारण अस्मदादि और केवल प्रातिपदिक का विरोध समाप्त हो जाता है । यथा कौशाम्बी परिभूय नः कृपणकैविद्वे षिभिः स्वीकृतां जानाम्येव तथा प्रमादपरतां पत्युर्नयद्व ेषिणः । स्त्रीणां च प्रियविप्रयोगविधुरं चेतः सदैवात्र में वक्तु नोत्सहते मनः परमतो जानातु देवी स्वयम् ॥ १०५ ॥ ज्ञात ही है जैसे- राजनीति से विद्वेष रखने बाले महाराज की वैसी लापरवाही ( जिसके कारण ) मामूली से शत्रुओं के द्वारा हम लोगों को पराजित करके कौशाम्बी
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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