SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० वक्रोक्तिजीवितम् यह, जिसका स्वरूप ( उक्त २१ वीं कारिका में ) बताया गया है, लिङ्गवैचिव्यवक्रता अर्थात् स्त्री ( नपुंसक) आदि (लिङ्गों) की विचित्रता के बाँकपन से उत्पन्न शोभा होती है। ( इस वाक्य को) दूसरी क्रिया के अभाव में भवति ( होती है ) क्रिया के साथ सम्बन्ध है ( अर्थात् भवति क्रिया का अध्याहार होगा )। कैसी है ( यह वक्रता) जिसमें अर्थात् जहाँ पर विभिन्न, अलग-अलग स्वरूप वाले लिङ्गों के मामानाधिकरण्य अर्थात् समान आश्रय होने से एक द्रव्य वृत्ति हो जाने के कारण कोई अपूर्व शोभा उदित होती है अर्थात् रमणीयता आ जाती है । जैसे यस्यारोपणकर्णणापि बहवो वीरवतं त्याजिताः कार्य पुखितबाणमीश्वरधनुस्तद्दोभिरेभिर्मया । स्त्रीरत्नं तदगर्भसंभवमितो लभ्यं च लीलायिता तेनैषा मम फुल्लपङ्कजवनं जाता दशां विशतिः ॥७६। जिसके प्रत्यञ्चायुक्त करने की क्रिया से भी बहुतों से शूरता का व्रत छुड़वा दिया गया उसी शिवधनुष को मुझे इन भुजाओं के द्वारा बाणयुक्त । करना है और इसके द्वारा उस अयोनिजा नारीरत्न को प्राप्त करना है, इसीलिये तो मेरी केलि सी करती हुई ये बीसों आँखें खिले हुए कमलों का समूह बन चली हैं ॥ ७६ ॥ यथा वा नभस्वता लासितकल्पवल्लीप्रबालबालव्यजनेन यस्य । उरःस्थलेऽकीर्यत दक्षिणेन सस्पिदं सौरभमङ्गरागः ॥७७॥ अथवा जैसे नचाई गई कब्पलता के नबाकुर रूप नये पंखों वाले मलयानिल ने उसके हृदयस्थल पर सर्वत्र सुगन्धित अङ्गराग को छिड़क दिया ॥ ७७ ॥ यथा च प्रायोज्य मालामतुभिः प्रयत्नसंपादितामसतटेऽस्य चक्रे । करारविन्दं सकरन्दंबिन्दुस्यन्दि श्रिया विभ्रमकर्णपूरः॥७॥ तथा जैसे ऋतुओं के द्वारा परिश्रमपूर्वक तैयार की गई माला को इसके कन्धों पर डाल कर मधुबिन्दुओं को बरसाने वाले अपने करकमल' को शोभावश ( इसका ) लीला कर्णपूर बना दिया ॥७८ ।।
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy