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________________ द्वितीयोन्मेषः २३५ इस प्रकार की अवस्थाओं से युक्त सोचता हूँ ( जैसा कि अभी मैंने तुमसे बताया है, क्योंकि तुम यह निश्चित समझ लो कि ) मुझे अपना सौन्दर्याभिमान ( ऐसी दशा की कल्पना करने के लिये ) वाचाट नहीं बना रहा है, ( अपितु उसका मेरे प्रति ऐसा अगाध स्नेह है जिससे कि ऐसी दशा उसकी हो गई होगी । और अधिक क्या कहूँ ) भइया, मैंने जो कुछ भी कहा है वह शीघ्र ही तुम अपनी आँखों से देखोगे ।। ६९ ।। यथा च--- यम्रा वा दाहोऽम्भ: प्रसूतिपचः इति ॥ ७० ॥ पायं पायं कलाचीकृतकबलदलम् इति ॥ ७१ ॥ और जैसे— दाहोऽम्भः प्रसृतिम्पचः ।। ७० ।। यह १।४८ पर पूर्वोदाहृत पद्य का अंश अथवा जैसे— पायं पायं कलाचीकृतकदलदलम् ॥ ७१ ॥ यह २ १० पर उद्धृत श्लोक का अंश । अत्र सुभगंमन्यभावप्रभुतिशब्देषु संनिवेशच्छायाविधायिनीं वाचकवक्रतां प्रत्ययाः पुष्णन्ति । यहाँ ' सुभगम्मन्यभाव' इत्यादि पदों में मुमादि के विलास के कारण रमणीय प्रत्यय विन्यास की शोभा को उत्पन्न करने वाली शब्दवक्रता को पुष्ट करते हैं । मुमादिपरिस्पन्दसुन्दराः एवं प्रसंगसमुचितां पदमध्यवर्तिप्रत्ययवत्रतां विचार्य समनन्तरसंभविनीं वृत्तिवक्रतां विचारयति ――― इस प्रकार प्रसङ्ग के अनुरूप पदों की मध्यवर्तिनी प्रत्ययवक्रता का विवेचन कर तदनन्तर अवसरप्राप्त वृत्तिवक्रता को प्रस्तुत करते हैं— अव्ययीभावमुख्यानां वृत्तीनां रमणीयता यत्रोल्लसति सा या वृत्तिवैचित्र्यवक्रता ॥ १६ ॥ जहाँ पर अव्ययीभाव (समास ) प्रधान वृत्तियों की सुन्दरता परिस्फुरित होती है उसे वृत्ति की विचित्रता से उत्पन्न ( वृत्तिवैचित्र्यवक्रता ) जानना चाहिए ।। १९ ।। सा वृत्तिर्वधिव्यवक्ता ज्ञेया बोध्या । बृत्तीनां वैचित्र्यं विचित्र भावः सजातीयापेक्षया सौकुमार्योत्कर्षस्तेन वक्रता वकभावविच्छित्तिः
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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