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________________ द्वितीयोन्मेषः २३३ इस प्रकार संवृतिवक्रता का विवेचन प्रस्तुत कर पदों के मध्य से अन्तर्भूत होने के कारण अवसरप्राप्त 'प्रत्ययवक्रता' के किसी भेद का विवेचन प्रस्तुत करते हैं प्रस्तुतौचित्यविच्छित्ति स्वमहिम्ना विकासयन् । प्रत्ययः पदमध्येज्ज्यामुल्लासयति वक्रताम् ॥१७॥ पद के मध्य में स्थित प्रत्यय अपने उत्कर्ष से प्रस्तुत वस्तु के औचित्य की शोभा को विकसित करता हुआ अन्य ( अपूर्व ) वक्रता को प्रकाशित करता है ॥ १७ ॥ कश्चित् प्रत्यय कृदादिः पदमध्यवृत्तिरन्यामपूर्वी वक्रतामल्लासयति वक्रभावमुद्दीपयति । किं कुर्वन् प्रस्तुतस्य वर्ण्यमानस्य वस्तुनो यदौचित्यमुचितभावस्तस्य विच्छितिमुपशोभा विकासयन् समुल्लासयन् । केन-स्वमहिम्ना निजोत्कर्षेण । यथा वेल्लबलाका घनाः ॥ ६७ ॥ यथा वा ___ स्निात्कटाक्षेदृशौ इति ॥ ६८ ॥ पदों के मध्य में स्थित कोई कृदादि प्रत्यय अन्य अपूर्व वक्रता को उल्लासित करता है अर्थात् वैचित्र्य को प्रकट करता है । क्या करता हुआ-प्रस्तुत अर्थात् वर्णन की जाती हुई वस्तु का जो औचित्य अर्थात् उपयुक्तता अथवा योग्यता है उसकी विच्छित्ति अर्थात् सौन्दर्य को विकसित करता हुआ अर्थात् व्यक्त करता हुआ। किस के द्वारा अपनी महिमा अपनी प्रधानता के द्वारा ( शोभा का विकास करता हुआ ) जैसे वेल्लद्वलाका घनाः ॥ शोभित होती हुई बकपङ्क्तियों से युक्त बादल ॥ ६७ ॥ अथवा जैसेस्नियत्कटाक्षे दृशौ । स्नेह करते हुए कटाक्षों वाले नेत्र ॥ ६८ ।। अत्र वर्तमानकालाभिधायी शतप्रत्ययः कामप्यतीतानागत. विभ्रमविरहितां तात्कालिकपरिस्पन्दसुन्दरों प्रस्तुतौचित्यविच्छित्ति समुल्लासयन् सहृदयहृदयहारिणी प्रत्ययवक्रतामावहति । यहाँ ( दोनों ही उदाहरणों में ) वर्तमान काल का प्रतिपादन करने वाला शतृ प्रत्यय, भूत और भविष्य को शोभा से हीन उसी समय की सहज
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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