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________________ द्वितीयोन्मेषः २२९ कर लिया' इस कही जा सकने वाली भी वस्तु को सामान्य का कथन करन े चाले ( तत् ) सर्वनाम के द्वारा आच्छादित कर उत्तरार्द्ध के ( कामदेव की दशा रूप ) अन्य कार्य का प्रतिपादन करने वाले दूसरे वाक्य के द्वारा, ज्ञान का विषय बनाया जाना किसी अलौकिक चमत्कार की सृष्टि करता है । ( २ ) श्रयमपरः प्रकारो यत्र स्वपरिस्पन्दकाष्ठाधिरूढः सातिशयं वस्तु वचसामगोचर इति प्रथयितुं सर्वनाम्ना समाच्छाद्य तत्कार्याभिधायिना तदतिशयवाचिना वाच्यान्तरेण समुन्मील्यते । यथा ( २ ) यह ( संवृति वक्रता का ) दूसरा भेद है जहाँ अपने स्वभाव के चरमोत्कर्ष को प्राप्त होने से उत्कर्षयुक्त वस्तु को अनिर्वचनीय है, ऐसा प्रतिपादित करने के लिए ( उसका ) सर्वनाम के द्वारा संवरण कर उस कार्य का निरूपण करने वाले उसके उत्कर्ष के प्रतिपादक दूसरे वाक्य के द्वारा व्यक्त कराया जाता है । जैसे याते द्वारवतीं तदा मधुरिपौ तद्दत्तकम्पानतां कालिन्दीजलकेलिवञ्जुललतामा लम्ब्य सोत्कण्ठया । तद् गीतं गुरुबाष्यगद्गदगनतारस्वरं राधया येनान्तर्ज नचारिभिर्ज नच रैरप्युत्क मुल्क जितम् ॥ ५६ ॥ भगवान् कृष्ण के उस समय द्वारका चले जाने पर उनके द्वारा हिला कर झुका दी गई हुई यमुना की जलधारा में जलवेतस की लता का सहारा लेकर विरह से उत्कण्ठित होकर राधा ने अत्यधिक उमड़ आये हुए आंसुओं के कारण भर आये हुए गले से तारस्वर से इस तरह गाया कि जिसके कारण पानी में विचरण करनेवाले जलजन्तु भी बहुत ही बेचैन होकर चीख उठे ॥ ५९ ॥ अत्र सर्वनाम्ना संवृतं वस्तु तत्कार्याभिधायिना वाक्यान्तरेण समुन्मील्य सहृदयहृदयहारितां प्रापितम् । यथा वा यहाँ ( तत् ) सर्वनाम के द्वारा आच्छादित वस्तु उस कार्य का निरूपण करने वाले दूसरे वाक्य के द्वारा व्यक्त कराई जाने से सहृदयों के हृदयों को आनन्दित करने वाली हो गई है । अथवा जैसे --- तह रुण्णं कण्ह विसाहीश्राए रोहगग्गरगिराए । जह कस्स वि जम्मसए वि कोइ मा वल्लहो होउ ॥ ६० ॥ ( तथा रुदितं कृष्ण विशाखया रोधगद्गगिरा । यथा कस्यापि जन्मशतेऽपि कोऽपि मा ल्लभो भवतु ॥ )
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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