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________________ २१८ वक्रोक्तिजीवितम् ननु च व्यवधानममूर्त्तत्वाद्वर्ण्यमानस्य वस्तुनो देशविहितं तावन्न संभवति । कालविहितमपि नास्त्येव, तस्य क्रियाविषयत्वात् । क्रियास्वरूपं कारकस्वरूपं चेत्युभयात्मकं यद्यपि वर्ण्यमानं वस्तु, तथापि देशकालभ्यवधानेनात्र न भवितव्यम् । यस्मात्पदार्थानामनुमानवत् सामान्यमात्रमेव शब्दविषयीकर्तुं पार्यते, न विशेषः । तत्कथं दूरान्तरत्वमुपपद्यते ? ( इस पर पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि आपने जो वर्ण्यमान वस्तु में अनल्प व्यवधान बताया है, वह ) व्यवधान वर्ण्यमान वस्तु के अमूर्त होने के कारण देशविहित तो सम्भव ही नहीं हो सकता ( क्योंकि देशविहित व्यवधान केवल मूर्त पदार्थों में ही सम्भव होता 1) तथा ( उस वस्तु में ) कालकृत ( व्यवधान ) भी सम्भव नहीं क्योंकि वह क्रियाविषयक होता है ( वर्ण्यमान वस्तु में कोई क्रिया होती ही नहीं । इस प्रकार यह कथन कि वस्तु में व्यवधान होता है ठीक नहीं। इसी प्रश्न को और भी दृढ़ करने के लिए पूर्वपक्षी और भी कहता है कि यदि आप यह कहें कि कविकल्पना के समय उसके मस्तिष्क में वर्ण्यमान वस्तु क्रिया एवं कारक दोनों से युक्त स्वरूप उपस्थित रहता है । अत: कालकृत एवं देशकृत दोनों व्यवधान सम्भव है तो ठीक नहीं । (क्योंकि) यद्यपि वर्ण्यमान वस्तु (कविकल्पना में ) कारकस्वरूप एवं क्रियास्वरूप दोनों प्रकार की होती है फिर भी यहाँ देशविहित अथवा कालविहित (व्यवधान) सम्भवन हीं हो सकते, क्यों कि ( व्यवधान तो विशेष में होता है, सामान्य में नहीं और कविकल्पना में ) पदार्थों का अनुमान की भाँति केवल सामान्य ही शब्दों का विषय बनता है, न कि विशेष, अतः ( वस्तु में ) अत्यधिक व्यवधान का होना कैसे सम्भव हो सकता है ? सत्यमेतत् किन्तु 'दूरान्तर' - शब्दो मुखतया देशकालविषये विप्रकर्षे प्रत्यासत्तिविरहे वर्तमानोऽप्युपचारात् स्वभावविप्रकर्षे वर्तते । सोऽयं स्वभावविप्रकर्षो विरुद्धधर्माध्यासलक्षणः पदार्थानाम् । यथा मूर्तिमत्त्वममूर्तत्वापेक्षया, द्रवत्वं च घनत्वापेक्षया, चेतनत्वमचेतनत्वापेक्षयेति । ( इस पूर्वपक्ष का सिद्धान्त पक्ष उत्तर देता है कि ) ठीक है ( आपकी ) यह बात ( कि वस्तु में व्यवधान सम्भव नहीं ) फिर भी 'दूरान्तर' शब्द मुख्य रूप से देश - कालविषयक विप्रकर्ष अर्थात् दूरी अर्थ का प्रतिपादक होने पर भी उपचार अर्थात् ( गौण रूप ) से स्वभाव के विप्रकर्ष का भी प्रतिपादक होता है । तथा वही यह पदार्थों के स्वभाव का अप्रकर्ष विपरीत धर्मों का
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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